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Sunday, September 25, 2016

वेदों में गायन कला


- डॉ. शरद सिंह
             
गायन मानव की संवेदनाओं को जागृत करता है.आज दुनिया भर में संगीत के महत्व पर वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं . पाश्चात्य  जगत के वैज्ञानिक पृथ्वी के समस्त चेतन तत्वों पर पड़ने वाले संगीत के प्रभाव का अनुसंधान करने में जुटे हुए हैं . जबकि हमारे वैदिक ऋषियों ने संगीत के समस्त प्रभावों को पहले ही जान लिया था तथा गायन को जीवन की प्रत्येक गतिविधि से जोड़ने का आह्वान किया था .
               ऋग्वेद, अथवर्वेद, यजुवेर्द और सामवेद में सामवेद में गायन के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है. वैदिक ऋषि जानते थे कि मानव में आन्तरिक गुणों के विकास के लिए गायन को अपनाया जाना जiरी है . गायन में वह शक्ति है जो आनन्द, प्रेम, श्रद्धा और सद्भावना को जगाती है . गायन के विशेष उतार-च ढ़ाव प्रत्येक जीव से संवाद कर सकते हैं . यदि बांसुरी की धुन पर गाय  आदि पशुओं को नियंत्रित, निदेर्शित किया जा सकता है, डमरू की ध्वनि पर भालू नत्तर्न कर सकता है तथा पक्षी वर्ग स्वयं गाय नयुक्त स्वर में संवाद कर सकता है तो ये संगीत का व्यापक प्रभाव ही है जो प्रत्येक जीव के मन को आंदोलित एवं आल्हादित करता है. वेदों में कहा गया है कि सम्पूणर् सृष्टि लयबद्ध और संगीतमय  है तथा अलौकिक संगीत का प्रवाह सम्पूर्ण सृष्टि में में प्रवाहित होता रहता है. इस अलौकिक संगीत को ही वेदों में अनहद नाद कहा गया है.    
                                                                    
सामवेद में सामगान का वणर्न मिलता है. सामगान को आत्मा का मधुर आलाप कहा गया है.
     तस्य  हैतस्य  साम्नोय : स्वं वेद -
     भवति हास्य  सवं तस्य  वै स्वर एव स्वं  ।। साम. 1.3.25
               संगीत सात स्वर और सात श्रुतियों का समूह है. ये स्वर और श्रुतियां कानों के माध्यम से मन-मतिष्क तक पहुंचती हैं और सुप्त संवेदनाओं को जगा कर स्वर के अनुरूप भावना का संचार करती हैं . संगीत के सात स्वर हैं- स,रे,ग,म,प,ध,नि . इन सभी सात स्वरों की अपनी-अपनी अलग ध्वनि शक्तियां हैं. जैसे, "स' की ध्वनिशक्तियां हैं-तहव्रा, कुमुदवती,मन्दा और छन्दोवती. "रे 'की ध्वनिशक्तियां हैं-दयावती, रंजनी और रतिका . "ग' की रौद्री और क्रोधा. "म' की वज्रिका,प्रसारिणी प्रीति और माजर्नी. "प' की क्षिति, रक्ता, सांदीपिनी एवं अलापिनी. "ध' की मदन्ती, रोहिणी और रम्या. इसी प्रकार "नि' की ध्वनिशक्तियां हैं उग्रा और क्षोभिणी. 
            सामवेद में स्पष्ट कहा गया है कि यदि स्वरों की शक्तियों के अनुरूप गायन किया जाए तो सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.यदि संगीत की स्वर-शक्तियों का उचित अभ्यास हो तो गायक चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है. गायन ईश्वर तक पहुंच ने का मागर् प्रशस्त करता है. याज्ञवल्यि  स्मृति में गाय न को देव दशर्न का माध्य म बताया गया है-
              अतो गीतप्रपंचस्य  श्रुत्यादेस्तत्वदशर्नात् ।
              अपिस्यात्सच्चिदानन्द रूपिण: परमात्मन:
              प्राप्ति: प्रभावृत्तस्य  मणिलाभो यथाभवेत् ।।  या.स्मृ.718
                
 सामवेद में प्रमुख चार प्रकार के गान का उल्लेख है - ग्रामगेय  गान, अर·य गान, ऊह गान तथा रहस्य  गान.  ग्रामगेय  गान प्रकृति की उपासना का गान है, अरण्य  गान आंतरिक शांति की अनुभूति का गान है, ऊह गान लौकिक आनन्द की अनुभूति का गान है तथा रहस्य  गान लौकिक एवं अलौकिक रहस्यों से तादात्म्य  स्थापित करने का गान है. ये गान जीव में ऊर्जा का संचार करते हैं तथा जीवनचर्या को सदगति प्रदान करते हैं . इसीलिए वैदिक ऋषियों ने मंत्रों एवं श्लोकों को संगीत की स्वरलहरियों में निबद्ध करके उच्चारित करने की परंपरा शुरू की जिससे मंत्रों तथा श्लोकों का समुचित प्रभाव उत्पन्न हो सके.
 सामगान के गायकों को आरोह-अवरोह सहित संगीत के नियमों का पालन करते हुए गाने का अभ्यास कराया जाता था.ये गाय क गुरुकुल में रहते थे और गायनकला में दक्षता प्राप्त करते थे. किसी भी मंत्र को आठ प्रकार से गाया जा सकता था. ये आठ प्रकार अथवा शैलियां थीं- विकार, विश्लेषण, विकषर्ण, अभ्यास, विराम, स्तोभ, आगम और लोप. आलाप के लिए स्तोभ का प्रयोग किया जाता था. जैसे इस मंत्र का स्तोभ शैली में गान किया जाता था-
     अहमस्मि प्रथामजा ऋतस्य  पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य  नाम ।
     यो मा ददाति स इदेवमावदह मन्नमन्न मदन्त मद्मि ।। साम.594
               
वैदिककाल में जब पूरी तन्मयता एवं शात्रीय  संगीतात्मकता के साथ मंत्रों  का उच्चारण किया जाता था तो उसका प्रभाव समस्त चेतन जगत् पर पड़ता था. शाÍीय  विधि से मंत्रों का गायन पवित्रकार्य  माना जाता था. अथवर्वेद में कहा गया हैकि गायन से देव प्रसन्न होते हैं तथा आयु, प्राण, प्रजा, पशुधन, कीर्ति आदि की वृद्धि होती है.
       स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयंतां पावमानी द्विजानाम ।
       आयु: प्राणं प्रजा पशुं कीतिर् द्रविणं ब्रह्मवच र्स्म ।
       मद्दमं दत्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम् ।।  अथवर्. 19.77.1
                                  
            सामवेद का उपवेद गान्धवर्वेद है. गान्धवर्वेद में भारतीय  शात्रीय  राग-रागिनियों, वाद्यों एवं  नृत्यकला का वर्णन है. वेदों में  गायन को उल्लास की पूणर्ता, उत्सव का चरम तथा आह्वान का माध्यम माना गया है. इसीलिए यह माना जाता था कि संगीतमय  मंत्रोच्चार से देवता प्रसन्न होते हैं. यदि देवता का आह्वान करना है तो उसे संगीतात्मक स्वर में आमंत्रित करना चाहिए.
                  बृहदिन्द्राय  गाय त मदतोवृत्रहन्तमम् ।
                  येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधो देवं देवाय  जागृवि ।। 
                                                                          (य जु. 2.3) 
                   इसी प्रकार याज्ञवल्यि  स्मृति में  मोक्ष प्राप्ति के लिए वाद्यवृंद के सुमधुर संगीत के साथ गायन को महत्वपूर्ण बताया गया है.
              वीणावादनतत्वज्ञः  श्रुतिजाति विशारदः ।
              तालज्ञश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग स गच्छति ।। या.स्मृ.718  
 
                वैदिक ऋषि जानते थे कि संगीत की स्वर लहरियों में रोगों को दूर करने की भी क्षमता होती है .   वे जानते थे कि रोग आंतरिक शक्तियों  के क्षीण होने से उत्पन्न होते हैं अतः गायन द्वारा क्षीण आंतरिक शक्तियों को उर्जा प्रदान करके रोगी के रोग को दूर किया जा सकता है. जैसे, नैराश्य  से उत्पन्न रोग को आनन्दपूर्ण गायन से दूर किया जा सकता है. 
                                     
                  
वस्तुतः विश्व के अनेक विद्वान एवं वैज्ञानिक चेतन जगत् पर गायनकला के प्रभावों के बारे में जो खोज कर रहे हैं उन प्रभावों के बारे में वेदों में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है. यदि आवश्यकता है तो वेदों के अध्ययन करने और उसमें निहित ज्ञान को लोकोपयोगी रुप में सामने लाने की.