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Tuesday, June 28, 2011
Wednesday, June 15, 2011
मिथुन मूर्तियों का रहस्य
- डॉ.शरद सिंह
खजुराहो, वहां स्थित मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई मिथुन मूर्तियों के लिए विख्यात है। यह प्रश्न बार-बार उठता रहा है कि मंदिर भित्तियों पर ऐसी मूर्तियां क्यों उकेरी गईं ? पूजा-अर्चना स्थल पर ऐसी मूर्तियों का क्या औचित्य है ? मंदिर अथवा कोई भी उपासना स्थल वह स्थान होता है जहां पहुंच कर मनुष्य लौकिक से अलौकिक की ओर आकर्षित होता है, तो फिर काम-क्रीड़ा रूपी लौकिक क्रियाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन क्यो ?
इन सारे प्रश्नों का उत्तर आज भी पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं हो सका है। खजुराहो की मिथुन मूर्तियों को ले कर विभिन्न विचार एवं मत प्रचलित हैं।
कैलाश मंदिर, एलोरा |
खजुराहो की भांति उड़ीसा तथा मध्य भारत के कुछ अन्य स्थानों पर भी मिथुन मूर्तियों का चित्रण है। कोणार्क के अतिरिक्त कर्नाटक के भत्कल मंदिर में, तमिलनाडु के कामाक्षी अम्बा मंदिर में, महाराष्ट्र एलोरा के कैलाश मंदिर में, आंध्र प्रदेश आलमपुर के ब्रह्मा मंदिर में मिथुन मूर्तियां मौजूद हैं।
कोणार्क मंदिर प्रतिमाएं |
कोणार्क के मंदिर में मिथुन मूर्त्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इन सभी मंदिरों और मूत्तियों का निर्माण लगभग उसी युग में हुआ जब खजुराहो के मंदिर एवं मूर्तियां निर्मित हुयीं। तुलनात्मक दृष्टि से खजुराहो का मूर्ति शिल्प इन सभी से श्रेष्ठ है। इसकी श्रेष्ठता को स्थापित करने वाला तत्व है इसकी सौन्दर्यात्मकता। उड़ीसा के मंदिरों में रथ और अश्व के अंकन को छोड़कर शेष मूर्तियों में खजुराहो की मूर्तियों की अपेक्षा स्थूलता है। इन मंदिरों की नारी मूर्तियों में कमनीयता, लावण्य, अलंकरण की सूक्ष्मता तथा सम्प्रेषणीयता की अपेक्षाकृत कमी है। इसी प्रकार मिथुन मूर्तियों में पौराणिक आख्यान है, कला की पुरातन एवं समसामयिक अवधारणायें हैं, तथा सौन्दर्य के विकसित आयाम से चरम विकसित आयाम हैं।
युगल प्रतिमा, खजुराहो |
खजुराहो की मिथुन मूर्तियां मंदिर भित्ति पर अपने उत्खचन को एक विशिष्ट अवधारणा प्रदान करती हैं। इसका वज्र यान, तंत्रयान अथवा किसी भी वैचारिक आधार से आकलन किया जाए यह अवधारणा एक मत से उद्घाटित होती है कि समस्त सांसारिकता के निर्वहन के बाद ईश्वर की प्राप्ति संभव है। मिथुन मूर्तियां मंदिरों में उत्खचित अन्य मूर्तियां की अपेक्षा कम संख्या में हैं किन्तु अपनी कलात्मक जीवन्तता के कारण समूचे विश्व के कला-शिल्प प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करती हैं। इस प्रकार की मूर्तियां लक्ष्मण मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, जगदम्बा मंदिर तथा कंदरिया महादेव जैसे पश्चिमी समूह के मंदिरों तथा दक्षिणी समूह में दूलादेव मंदिर की बर्हिभित्तियों पर मिथुन मूर्तियां का सुन्दर एवं जीवन्त अंकन है। मिथुन मूर्तियों के मंदिर भित्तियों पर प्रदर्शन को लेकर विद्वानों में सदैव मतभेद रहा है। कुछ विद्वान उन्हें तत्कालीन सामाजिक विच्श्रृंखलता का प्रतीक मानते हैं। कुछ विद्वान इन्हें तांत्रिक विधान से जोड़ते हैं तो कुछ जीवन से मृत्यु (मोक्ष) तक की क्रमिक क्रियाओं का प्रदर्शन मानते हैं।
ब्रह्मा मंदिर, आलमपुर |
हिन्दू जीवन-व्यवस्थाओं में चार पुरुषार्थों-अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में काम को भी अन्य तीन पुरुषार्थों के समकक्ष महत्वपूर्ण माना गया है। खजुराहो में प्रदर्शित मिथुन मूर्तियों सृजन हेतु काम को प्रदर्शित करती हैं जिससे इनके तन्त्र मार्ग से प्रभावित होने का भ्रम होने लगता है। मिथुन मूर्तियां में प्रदर्शित कामकला की विविध पद्धतियां एवं आसन यह प्रदर्शित करते है कि मनुष्य अपने जीवन से पूर्ण तृप्ति के बाद ही आध्यात्म की ओर प्रवृत हो सकता है तथा मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
कैलाश मंदिर, एलोरा |
खजुराहो में प्रदर्शित मिथुन मूर्तियों में जिन आसनों का अंकन है उनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में मिलता है। जिनमें भुग्नक, व्यायत, अवलम्बितक, धेनुक, संघाटक, गोयूथिक तथा अघोरत आदि का अंकन शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से अनुपम है। इनकी अन्तक्रियाओं को भी शिल्पियों ने सहज भाव से प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ, धेनुक की अन्तक्रियाए हारिणबन्ध, छागल, गर्दभाक्रान्त, मार्जारललिततक आदि का प्रदर्शन विविध मूर्तियों में है।
लक्ष्मण मंदिर की बहिर्भित्तियों पर रतिक्रिया में लिप्त युगल, मुख मैथुन, गोयूथिक (सामूहिक रतिक्रिया) तथा पशु-संभोग का उत्खचन है। इसी प्रकार दूलादेव मंदिर में मुखमैथुन, देवी जगदम्बा मंदिर में पशु आसन तथा लक्ष्मण मंदिर में गोयूथिक चित्रण प्रदर्शित किया गया है। लक्ष्मण मंदिर की बर्हिभित्ति पर अधोरत युगल के निकट एक उन्मत्त गज का अंकन है जो अपनी सूंड में एक पुरुष की टांगों को लपेटे हुए है और अपने आगे के दायें पैर को उठाकर उस पुरुष के सिर को रौंदने को तत्पर है। इसी मंदिर में उत्कीर्ण एक अन्य प्रतिभा में व्यायत युगल की बायीं ओर एक नारी तथा दायीं ओर एक पुरुष अनुचर प्रदर्शित है। ये दोनों युगल की क्रीड़ा से प्रभावित हो आत्मरति में संलग्न हैं। नीचे एक अन्य सेविका बैठी हुई है। इस प्रतिमा में मानवीय संवेग के संचरण का व्यावहारिक प्रदर्शन है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में ही गोयूथिक एवं पशु संभोग चित्रण में एक-एक अनुचरों को अपने हाथों से अपने दोनों नेत्र बंद किए हुए दिखाया गया है। संभवतः संवेग संचरण से बचने के लिए यह आचरण प्रदर्शित है क्योंकि अन्य अनुचर सहयोगी की भूमिका में हैं।
नारी प्रतिमा, खजुराहो |
इस प्रकार खजुराहो के मूर्ति शिल्प में जहाँ शिल्पगत आनुपातिक सौष्ठव का सुन्दर प्रदर्शन है वहीं संवेगों की विस्तृत एवं वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति है। काम-भावना का यथार्थ एवं सूक्ष्म चित्रण खजुराहो की अपनी कलात्मक विशिष्टता है। यह हिन्दू मंदिरों में प्रदर्शित है किन्तु यह भी संभावना प्रकट की जा चुकी है कि जैन मंदिर समूह के शांतिनाथ मंदिर में भी मिथुन मूर्तियों का अंकन रहा होगा। शांतिनाथ मंदिर में द्वार स्तम्भों पर उत्कीर्ण मूर्तियां (खण्डित अवस्था में) तथा मंदिर के परकोटे में स्थित अन्य मंदिरों की मिथुन मूर्तियों से प्रतीत होता है कि जैन मंदिरों में भी मिथुन मूर्तियां रही होंगी जो कि कालान्तर में वैराग्यवादी परम्परा के विरूद्ध होने के कारण खण्डित कर दी गई।
भत्कल मंदिर, कर्नाटक |
प्रत्येक शिल्प अपने समय की स्थितियों, परम्पराओं वैचारिक एवं प्रचलित प्रतिमानों को प्रदर्शित करता है। मंदिर भित्तियों पर मिथुन मूर्तियों का सार्वजनिक प्रदर्शन काम रूपी पुरुषार्थ के प्रति तत्कालीन समाज के विस्तृत दृष्टिकोण का परिचायक भी माना जा सकता है। इसे पशु, पक्षी, मनुष्य सभी में समान रूप से स्वाभाविक क्रिया के रूप में ग्रहण करते हुए जीवन की पूर्णता (तदोपरान्त मोक्ष) आवश्यक तत्व का स्थान दिया गया है। खजुराहो शिल्प के पूर्व भी मिथुन अथवा युगल चित्रण किए गए। शुंगकालीन मृण्यमूर्तियों एवं पाषण मूर्तियों में युगल चित्रण अमरावती एवं मथुरा में है। इसके पूर्व वैदिक युग के विभिन्न ग्रंथों में शिव-शक्ति, पुरुष-प्रकृति, आत्मा-परमात्मा आदि के रूप में इसी भावना का उल्लेख हुआ है।
रात्रिदेवी, बेबीलोनिया |
मंदिरों की बहिर्भित्तियों पर इस प्रकार का प्रदर्शन आधुनिक समाज में आश्चर्य उत्पन्न करता है किन्तु मंदिरों और यौनाचार का पारस्परिक संबंध प्राचीनतम है। बेबीलोनिया के मिलित्ता मंदिर में प्रत्येक विवाहिता को एक बार जाकर विदेशी के साथ कुछ घंटे व्यतीत करने को होते थे।
अफ्रोदीती मंदिर मूर्ति, ग्रीस |
इसी प्रकार ग्रीक अफ्रोदीती और रोमन वीनस के चारों ओर गणिकाओं के आवास होते थे। भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा भी चंदेलकाल से पुरातन है। कालिदास ने महाकाल की चरणधारिणी नर्त्तकियों का उल्लेख किया है। किन्तु, छठीं शताब्दी ईसवी में नग्न नारी मूर्तियों का उत्खचन तो किया जाता था लेकिन मिथुन चित्रण का अभाव था। वज्रयान उदय यानी छठीं शताब्दी के निकट तांत्रिक परिपाटी का विकास हुआ और साधना का केन्द्र नारी को बनाया गया। शाक्त धर्म में भी भोग द्वारा तंत्र सिद्ध करने की परिपाटी रही। विन्ध्याचल में नग्न कुमारी की पूजा प्रमुख अनुष्ठान था। औघड़, सहजिया, मरमिया आदि कापालिक पंथ तंत्र ज्ञान का प्रसार करते रहे। इस प्रकार की परिपाटियों ने मंदिर में मिथुनमूर्तियाँ के उत्खचन को सहज सार्वजनिक होने में मदद की होगी।
मिथुन मूर्तियों को चाहे तंत्राचार का उदाहरण माना जाए अथवा काम-पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग की अभिव्यक्ति किन्तु तथ्य निर्विवाद सिद्ध है कि इनमें शिल्प सौंदर्य का इतना सुन्दर प्रदर्शन है कि ये मूर्तियां संवेगों से युक्त एवं जीवन्त प्रतीत होती हैं।