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Wednesday, December 18, 2013

प्राचीन भारत में स्त्री के अधिकार एवं स्वतंत्रता


        किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर के ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप ये पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भांति सम्मिलित होती थीं। किन्तु स्मृति काल में स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग की भांति नहीं थी। पुत्री के रूप में तथा पत्नी के रूप में स्त्री समाज का अभिन्न भाग रही लेकिन विधवा स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण कालानुसार परिवर्तित होता गया।

पुत्री के रूप में
प्राचीन भारतीय समाज में पुत्रियों को भावी स्त्री के रूप में संतति में वृद्धि करने वाली माना जाता था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता रहा हो, पुत्रियों को भी शिक्षा दी जाती थी तथा विदुषी पुत्री को समाज में सराहना मिलती थी। फिर भी विभिन्न युगों में समाज में पुत्री की स्थिति में अन्तर आता गया।

सैन्धव काल में - सिन्धु घाटी सभ्यता में पुत्रियों की स्थिति का अनुमान स्त्रियों के आभूषण, देवी भगवती की मूर्ति तथा नर्त्तकी की मूर्ति से लगाया जा सकता है। सैन्धव समाज में जननी की भूमिका निभाने वाली स्त्री का विशेष स्थान था। अतः पुत्रियों के जन्म को भी सहर्ष स्वीकार किया जाता रहा होगा। उन्हें शिक्षा दी जाती थी तथा नृत्य, गायन, वादन आदि विभिन्न कलाओं में निपुणता प्राप्त करने का अवसर दिया जाता था।

वैदिक युग में -वैदिक युग में स्त्री का समाज में पुरुषों के समान सम्मान था। पुरुष सत्तात्मक समाज में पुत्र के जन्म की कामना सदैव रही है। पुत्रों को युद्ध में षत्रुओं को पराजित करने के लिए योग्य माना जाता था। इसी भावना के कारण वैदिक युग में भी कुछ ऐसे धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे जो पुत्र जन्म से संबंधित होते थे। अथर्ववेद में इसी प्रकार के एक धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख मिलता है जो पुत्र प्राप्ति की कामना से किया जाता था। किन्तु वैदिक ग्रंथों में ही कुछ ऐसे अनुष्ठानों का भी उल्लेख है जो पुत्री प्राप्त करने की लालसा से किए जाते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में इसी प्रकार के एक अनुष्ठान का उल्लेख है जो विदुषी पुत्री प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता था।
             वैदिक युग में पुत्री के जन्म पर शोक मनाने का उल्लेख किसी भी वैदिक ग्रंथ में नहीं मिलता है। ऋग्वैदिक काल में लोपामुद्रा, घोषा, निवावरी, सिकता, विश्ववारा आदि अनेक ऐसी स्त्रियां हुईं जिन्होंने ऋचाएं लिख कर ऋग्वेद को समृद्ध किया। वैदिक युग में पुत्रियों के लिए योग्य वर मिलना कठिन नहीं था। स्त्रियों को नियोग एवं पुनर्विवाह की भी अनुमति थी अतः माता-पिता के लिए पुत्री का जन्म चिन्ता का विषय नहीं होता था। पुत्रियों को इच्छानुसार शिक्षा पाने का अधिकार था। वे ज्ञान प्राप्त करती हुई एकाकी जीवन भी व्यतीत कर सकती थीं। उन्हें युवा होने पर अपनी इच्छानुसार वर चुनने का भी अधिकार था।
        
उत्तरवैदिक युग में
उत्तरवैदिक युग में पुत्रियों की स्थिति ठीक वैसी नहीं रही जैसी कि वैदिक युग में थी। उत्तरवैदिक काल में यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान करने का अधिकार पुत्रों को दिया गया। पुत्रियां यज्ञ में सहभागी हो सकती थीं किन्तु यज्ञ नहीं कर सकती थीं। पुत्रियों को भी आश्रम व्यवस्था का पालन करना होता था। अथर्ववेद के अनुसार पुत्रियां लगभग 16 वर्ष की आयु तक अविवाहित रहती थीं। 16 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर पुत्रों की भांति पुत्रियों का भी उपनयन संस्कार कराया जाता था। उन्हें ब्रह्मचर्य का भी पालन करना होता था। अविवाहित पुत्रियां अपने माता-पिता के संरक्षण में उन्हीं के गृह में रहती थीं। पुत्रों के जन्म पर पुत्रियों के जन्म की अपेक्षा कहीं अधिक खुशी मनाई जाती थी तथा ‘पुत्रवती भव’ का आशीर्वाद पूरा होने की कामना की जाती थी। किन्तु पुत्र के स्थान पर पुत्री का जन्म हो जाने पर उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। पुत्री के लालन-पालन पर भी पूरा ध्यान दिया जाता था तथा उसे शिक्षित होने का अधिकार था। उत्तरवैदिक काल में धीरे-धीरे उन विचारों का जन्म हुआ जिनमें पुत्री के जन्म को अशुभ घटना माना जाने लगा.

उपनिषद् युग में -
उपनिषद् युग में पुत्रियों को ज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त स्वतंत्रता थी। वे वेदों का अध्ययन कर सकती थीं। वे वेद तथा तत्व-ज्ञान संबंधी विषयों पर पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ अर्थात् वाद-विवाद कर सकती थीं। पुरुष के जीवन को स्त्री के बिना अपूर्ण समझा जाता था। अतः पुत्री के जन्म को शोक का कारण नहीं समझा जाता था। पुत्रियों को विवाह के उपरान्त अधिक अधिकार प्राप्त होते थे। विवाह के पूर्व उन्हें अपने माता-पिता के पूर्ण संरक्षण में रहना होता था। विदुषी पुत्रियां समाज में विशेष सम्मान पाती थीं।


(इस आलेख को विस्तार से मेरी पुस्तक ‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’ में पढ़ें।)

Monday, December 09, 2013

Tuesday, December 03, 2013

भारतीय मूर्तिकला में प्रतीक तत्व (Symbolic element in Indian sculpture)




- डॉ शरद सिंह 
 
         
    प्रतीक अप्रस्तुत को प्रस्तुत करता है। अमूर्त को मूर्त करता है। सम्पूर्ण बीजगणित की गणितीय प्रणाली प्रतीकों पर निर्भर है क्योंकि उसमें ‘अ’ ‘ब’ ‘स’ अप्रस्तुत का प्रतिनिधित्व करते हैं। आध्यात्म में यही है। ‘ऊॅ’ - ब्रह्मा के लिए, परम, चरम एवं चिरन्तन सत्य के लिए प्रयुक्त होता है। कुछ चिन्ह भी प्रतीक का कार्य करते हैं, जैसे चक्र विष्णु या कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है। त्रिशूल और डमरु शिव की ओर संकेत करते हैं। मात्रा त्रिशूल का प्रदर्शन शक्ति का प्रतीक होता है।
    आंग्ल भाषा में प्रतीक के लिए ‘सिम्बल’ (Symbol) शब्द प्रयुक्त हुआ है। सिम्बल अथवा प्रतीक के कुछ अर्थ यहां प्रस्तुत हैं:-
    ‘‘एक प्रतीक जो कि किसी अन्य परम्परा अथवा रीति-रिवाज का प्रतिनिधित्व करता हो, एक प्रतीक धार्मिक सिद्धांत, धार्मिक शिक्षा के सार अथवा विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठान का प्रतिनिधित्व करता हो।’’- चेम्बर्स ट्वेंटीन्थ सेंचुरी डिक्शनरी, 1983 पृ. 1309
    ‘‘संकेत अथवा वस्तु पुनस्र्मरण कराता हो, किसी वस्तु का प्रतीक अथवा प्रतिनिधित्व करता हो, चिन्ह अथवा संकेत किसी विधि-विधान अथवा क्रिया अथवा दमित वस्तु का प्रतिनिधित्व करता हो, अज्ञात को प्रस्तुत करने वाला, स्मरण कराने वाला आदि।’’ - द न्यू लेक्सिकन वेब्सटर्स इनसाइक्लोपीडिक डिक्शनरी आॅफ द इंग्लिश लैंग्वेज, डीलक्स संस्करण, संशोधित एवं परिवर्धित 1992, पृ. 1002
Brahma

‘‘कुछ ऐसा जो प्रतिनिधित्व के लिए प्रदर्शित हो, अथवा किसी अन्य का अर्थ रखता हो, एक लौकिक वस्तु जो अलौकिक अथवा अमूर्त का प्रतिनिधित्व करती हो, एक वस्तु जो किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करती हो, वह तत्व जो ईसा के शरीर और रक्त में से किसी एक अथवा दोनों में से प्रत्येक का प्रतिनिधित्व करता हो।’’- द शाॅर्ट आॅक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी आॅन हिस्टोराईड प्रिंसीपल्स, वाल्यूम सेकेंड, तृतीय संस्करण, 1944, पृ. 2109
    ‘‘मूल रूप से और बहुधा वह जटिल कलात्मक स्वरूप अथवा संकेत जो धार्मिक अंतर्वस्तु के मूल तत्व के लिए प्रयुक्त होता है । प्रतीक ‘अभिप्राय’ के अर्थ में विभिन्न रूपों में पाया जाते हैं -
        1. मानवतारोपी अथवा मानवीकरण अभिप्राय
            (Anthropomorphic Motifs) 
        2. सैद्धांतिक अथवा पशुरूपी अभिप्राय
           (Theriomorphic or Zoomorphic Motifs)
        3. संकरित अभिप्राय
           (Hybrid Motifs)
        4. वर्णिक अभिप्राय
            (Chromatomorphic Motifs)
        - द न्यू इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, वाल्यूम - 17, पृ. 900   
    उन्नीसवीं सदी के अंत तथा बीसवीं सदी के आरम्भ में योरोपीय साहित्य में ‘सिम्बोलिज्म’ अर्थात् ‘प्रतीकात्मकता’ का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इसका प्रयोग योरोप के प्रकृतिवादी एवं यथार्थवादी आन्दोलनकारियों ने शुरू किया। ये आंदोलनकारी ‘प्रतीकात्मकतावादी’ (Symboist) कहलाए। प्रतीकात्मकवादी मेलार्म (Mallarme) ने प्रतीकात्मकता को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि यह काव्य को अर्थवत्ता और संगीत की शक्ति है जो किसी भी भाषा माध्यम से अधिक महत्वपूर्ण है। मेलार्म और वेलेरी की विशुद्ध प्रतीकात्मकता के तत्व हाॅकिन्स, इलियट, प्रोस्ट एवं जोई की रचनाओं में मिलते हैं। संगीत में प्रतीकात्मकता को लाने का श्रेय डेबूसी (Debussy) को है। इसी प्रकार नाट्य कला में मेटरलिंक (Maeterlink) ने प्रतीकवाद का समावेश किया। इस प्रकार साहित्य की विविध विधाओं के साथ-साथ चित्राकला और मूर्तिकला में प्रतीकात्मकता के तत्व प्रचलन में आए।
Symbols

    प्रतीकात्मकता (Symbolism) का अर्थ है:-
        1. ‘‘प्रतीकों अथवा संकेतों के द्वारा प्रतिनिधित्व, प्रतीक व्यवस्था, उन्नीसीं सदी के अंत में
        कला एवं काव्य में जन्म वह आन्दोलन जो वास्तविकता की ओर संकेत करने अथवा किसी
        अन्य महत्वपूर्ण तथ्य को प्रस्तुत करने में विश्वास रखता था।’’   
        - चेम्बर्स ट्वेंटीन्थ सेंचुरी डिक्शनरी, 1983, पृ. 1309-10
        2. ‘‘प्रतीकों के द्वारा प्रतिनिधित्व, प्रतीक व्यवस्था, वे सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक गतिविधियां
        जो प्रतीकात्मवादी अपनाते थे।’’
        - द न्यू लेक्सिकन वेब्सटर्स इनसाइक्लोपीडिक डिक्शनरी आॅफ द इंग्लिश लैंग्वेज, डीलक्स
        आॅफ संस्करण, 1992, पृ. 1002
        3. ‘‘वह क्रियान्वयन जिसमें प्रतीकात्मवादी वस्तुओं को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करते थे, प्रतीक
        व्यवस्था, वस्तु अथवा क्रिया को प्रतीक रूप प्रदान करना।’’
        - द शार्टर आॅक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी आॅन हिस्टोराईड प्रिंसीपल्स, वाल्यूम सेकेंड,
        तृतीय संस्करण, 1944, पृ. 2109 
Laxami

    सारांशतः किसी विस्तृत बात को संक्षेप में और सुन्दरता से कहे जाने का ढंग प्रतीक कहलाता है। किसी तथ्य को स्पष्ट अथवा सीधे सरल शब्दों में अभिव्यक्त करने के बदले यदि लालित्यपूर्ण सांकेतिक शैली में व्यक्त किया जाए तो प्रतीक शैली कही जाती है। इसी प्रकार मूर्तिकला में लौकिक-अलौकिक तथ्यों की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का प्रचलन है। देवता तथा उससे संबंधित विचारों की अभिव्यक्ति प्रतीकों के द्वारा होती है। भारतीय मूर्तिकला में प्रतीकों के माध्यम से देव प्रतिमा का समीकरण भी किया जाता है। देवता के चिन्तन के साथ ही उपने प्रतीक तत्व भी स्मृति में उभर आते हैं। इस प्रकार प्रतीक तत्व प्रतिमा और उससे संबंधित विचारों को परस्पर जोड़ने का कार्य करते हैं। प्रतीकों की प्रमुखता के कारण प्राचीन भारतीय मूर्तिकला ‘प्रतीकात्मक कला’ कही जाती है। प्रतीकों का सर्वाधिक सुन्दर और सार्थक प्रदर्शन भारतीय मूर्तिकला की विशेषता कही जा सकती है।
    खजुराहो के मंदिरों में अंकित मूर्तियों में विविध प्रकार के प्रतीकों का प्रदर्शन किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन प्रतीक तत्वों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:-
                   (अ)   आयुध प्रतीक (
Weapon Symbol)              
                   (ब)    वाहन प्रतीक (Vehicle Symbol)                  
                   (स)    मांगलिक प्रतीक (Auspicious symbols)
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