- डॉ. शरद सिंह
प्राचीन भारत के समाज में गणिकाओं और देवदासियों का भी विशिष्ट स्थान था। ये गणिकाएं और देवदासियां नृत्य, संगीत
तथा वादन द्वारा जनसाधारण का मनोरंजन किया करती थीं। गणिकाओं और
देवदासियों में अन्तर था, गणिकाएं जिन्हें नगरवधू भी कहा जाता था, नगर
के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समर्पित होती थीं जबकि देवदासियां मन्दिर के
प्रति समर्पित होती थीं। सिन्धु घाटी से उत्खनन में प्राप्त नर्तकी की
मूर्ति के बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि यह राजनर्तकी अथवा गणिका की
भी हो सकती है। सिन्धु सभ्यता में नृत्य एवं गायन का प्रचलन था अतः इस तथ्य
को मानने में कोई दोष दिखाई नहीं देता है कि सैन्धव युग में सार्वजनिक
मनोरंजन के लिए जन को समर्पित नर्तकिएं रही होंगी।
गणिकाएं
- वे स्त्रियां जो पारिवारिक एवं वैवाहिक संबंधों से मुक्त रह कर अपने
कला-कौशल के द्वारा समाज के सभी लोगों का मनोरंजन का कार्य करती थीं, गणिकाएं
कहलाती थीं। वे परिवार के सदस्य के रूप में पारिवारिक अनुष्ठानों में भाग
नहीं ले सकती थीं किन्तु समाज के द्वारा वे बहिष्कृत नहीं थीं। बौद्ध
साहित्य से गणिकाओं का स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। बौद्धकाल के अनेक
गणराज्यों में यह प्रथा थी कि अत्यधिक सुन्दर स्त्री अविवाहित रह कर
नृत्य-गान के द्वारा सब का मनोरंजन कर सकती थी। गणराज्य के सब निवासियों
द्वारा समान रूप से उपभोग किए जा सकने के कारण ऐसी स्त्रियों को ‘गणिका’ कहा जाता था। वज्जिसंघ की राजधानी वैशाली की अम्बपाली इसी प्रकार की गणिका थी। वह अत्यंत सुन्दर, विदुषी
तथा विभिन्न ललितकलाओं में पारंगत थी। महावग्ग के अनुसार वैशाली की यात्रा
से लौट कर आए हुए एक श्रेष्ठि ने मगधराज बिम्बसार को यह बताया था कि ‘समृद्ध तथा ऐश्वर्य सम्पन्न वैशाली नगरी में अम्बपाली नाम की गणिका रहती है जो परम सुन्दरी, रमणीया तथा गायन-वादन तथा नृत्य में भी प्रवीण है।’
बिम्बसार के समय राजगृह में भी एक गणिका थी जिसका नाम सालवती था। मौर्यकालीन गणिकाओं के बारे में कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में विस्तृत जानकारी दी है। ‘अर्थशास्त्र’ से
ज्ञात होता है कि आवश्यकता पड़ने पर गणिकाएं गुप्तचर का कार्य भी करती थीं।
प्राचीन ग्रंथों में मथुरा तथा श्रावस्ती की गणिकाओं का भी उल्लेख मिलता
है। मथुरा और श्रावस्ती की गणिकाएं अनेक कलाओं में प्रवीण थीं। मानसोल्लास
के अनुसार राजा लोग जब कवियों और विद्वानों की गोष्ठियों का आयोजन करते थे
उस समय गणिकाओं को भी आमंत्रित किया जाता था। इन्द्रध्वज के उत्सव के समय
भी गणिका निगम को निमंत्रण भेजा जाता था। इससे स्पष्ट है कि समाज में
गणिकाओं का पर्याप्त आदर था किन्तु एक पारिवारिक स्त्री के रूप में गणिकाओं
का समाज में कोई स्थान नहीं था। एक बार गणिका बनने के बाद वे पुनः गृहस्थ
स्त्री नहीं बन सकती थीं। उन्हें सार्वजनिक संपत्ति समझा जाता था।
उल्लेखनीय है कि विभिन्न राजाओं द्वारा व्यभिचार, जुए
और पशु-वध को रोकने के प्रयास किए गए किन्तु वेश्यावृत्ति को रोकने का कोई
प्रयास नहीं किया गया। इससे स्पष्ट होता है कि गणिकाओं को समाज द्वारा
स्वीकार किया जाता था।
देवदासियां - जैसा कि ‘देवदासी’ शब्द से ही ध्वनित है कि देवदासी वे स्त्रियां होती थीं जिनका कार्य मंदिर के ‘देवता’ की
सेवा करना होता था। देवदासी बनाए जाने की प्रक्रिया के अंतर्गत कन्याओं का
विवाह मंदिर के प्रतिष्ठापित देवता के साथ कर दिया जाता था। विवाह के बाद
उस कन्या का कर्त्तव्य हो जाता था कि वह देवता के प्रति समर्पित रहे तथा
तथा किसी पुरुष के प्रति आकृष्ट न हो। देवदासियां किसी पुरुष से विवाह नहीं
कर सकती थीं। कुछ व्यक्ति अपनी कन्याओं को मंदिर के लिए अर्पित करते थे।
ये देवदासियां मंदिरों में नृत्य करती थीं। गुजरात के मंदिरों में 20
हजार से अधिक देवदासियां थीं। बंगाल के द्युम्नेश्वर और ब्रह्मानेश्वर
मंदिरों में भी अनेक देवदासियां रहती थीं। कटक के निकट शोभनेश्वर शिव
मंदिरों में भी अनेक देवदासियां रहती थीं। काश्मीर और सोमनाथपुरम के मंदिर
में भी अनेक देवदासियां रहती थीं। जाजल्लदेव चाहमान (1090 ई.) के दो
अभिलेखों से स्पष्ट है कि उसने स्वयं इस प्रथा को प्रोत्साहन दिया था।
कौमुदी महोत्सव,उदक
सेवा महोत्सव तथा धार्मिक उत्सवों के अवसर पर देवदासियां नृत्य करती थीं
तथा विभिन्न पुरुष उनके साथ सहवास करती थे जिससे धीरे-धीरे देवदासी प्रथा
में व्यभिचार व्याप्त होने लगा तथा देवदासी के रूप में स्त्रियों का शोषण
बढ़ गया। दक्षिण भारत के मंदिरों में यह प्रथा दीर्घकाल तक अबाध गति से चलती
रही।
रूपाजीवाएं
- स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियां रूपाजीवा कहलाती थीं।
नृत्य-गायन जैसी किसी ललितकला में निपुण होना इनके लिए आवश्यक नहीं था।
वात्सयायन ने ‘कामसूत्र’ में ऐसी स्त्रियों को कामकला में निपुण बताया है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में
भी रूपाजीवाओं का उल्लेख मिलता है। रूपजीवाएं भी दैहिक शोषण की शिकार रहती
थीं। उन्हें भी सार्वजनिक उपभोग की वस्तु माना जाता था।