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Wednesday, December 18, 2013

प्राचीन भारत में स्त्री के अधिकार एवं स्वतंत्रता


        किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर के ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप ये पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भांति सम्मिलित होती थीं। किन्तु स्मृति काल में स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग की भांति नहीं थी। पुत्री के रूप में तथा पत्नी के रूप में स्त्री समाज का अभिन्न भाग रही लेकिन विधवा स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण कालानुसार परिवर्तित होता गया।

पुत्री के रूप में
प्राचीन भारतीय समाज में पुत्रियों को भावी स्त्री के रूप में संतति में वृद्धि करने वाली माना जाता था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता रहा हो, पुत्रियों को भी शिक्षा दी जाती थी तथा विदुषी पुत्री को समाज में सराहना मिलती थी। फिर भी विभिन्न युगों में समाज में पुत्री की स्थिति में अन्तर आता गया।

सैन्धव काल में - सिन्धु घाटी सभ्यता में पुत्रियों की स्थिति का अनुमान स्त्रियों के आभूषण, देवी भगवती की मूर्ति तथा नर्त्तकी की मूर्ति से लगाया जा सकता है। सैन्धव समाज में जननी की भूमिका निभाने वाली स्त्री का विशेष स्थान था। अतः पुत्रियों के जन्म को भी सहर्ष स्वीकार किया जाता रहा होगा। उन्हें शिक्षा दी जाती थी तथा नृत्य, गायन, वादन आदि विभिन्न कलाओं में निपुणता प्राप्त करने का अवसर दिया जाता था।

वैदिक युग में -वैदिक युग में स्त्री का समाज में पुरुषों के समान सम्मान था। पुरुष सत्तात्मक समाज में पुत्र के जन्म की कामना सदैव रही है। पुत्रों को युद्ध में षत्रुओं को पराजित करने के लिए योग्य माना जाता था। इसी भावना के कारण वैदिक युग में भी कुछ ऐसे धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे जो पुत्र जन्म से संबंधित होते थे। अथर्ववेद में इसी प्रकार के एक धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख मिलता है जो पुत्र प्राप्ति की कामना से किया जाता था। किन्तु वैदिक ग्रंथों में ही कुछ ऐसे अनुष्ठानों का भी उल्लेख है जो पुत्री प्राप्त करने की लालसा से किए जाते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में इसी प्रकार के एक अनुष्ठान का उल्लेख है जो विदुषी पुत्री प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता था।
             वैदिक युग में पुत्री के जन्म पर शोक मनाने का उल्लेख किसी भी वैदिक ग्रंथ में नहीं मिलता है। ऋग्वैदिक काल में लोपामुद्रा, घोषा, निवावरी, सिकता, विश्ववारा आदि अनेक ऐसी स्त्रियां हुईं जिन्होंने ऋचाएं लिख कर ऋग्वेद को समृद्ध किया। वैदिक युग में पुत्रियों के लिए योग्य वर मिलना कठिन नहीं था। स्त्रियों को नियोग एवं पुनर्विवाह की भी अनुमति थी अतः माता-पिता के लिए पुत्री का जन्म चिन्ता का विषय नहीं होता था। पुत्रियों को इच्छानुसार शिक्षा पाने का अधिकार था। वे ज्ञान प्राप्त करती हुई एकाकी जीवन भी व्यतीत कर सकती थीं। उन्हें युवा होने पर अपनी इच्छानुसार वर चुनने का भी अधिकार था।
        
उत्तरवैदिक युग में
उत्तरवैदिक युग में पुत्रियों की स्थिति ठीक वैसी नहीं रही जैसी कि वैदिक युग में थी। उत्तरवैदिक काल में यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान करने का अधिकार पुत्रों को दिया गया। पुत्रियां यज्ञ में सहभागी हो सकती थीं किन्तु यज्ञ नहीं कर सकती थीं। पुत्रियों को भी आश्रम व्यवस्था का पालन करना होता था। अथर्ववेद के अनुसार पुत्रियां लगभग 16 वर्ष की आयु तक अविवाहित रहती थीं। 16 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर पुत्रों की भांति पुत्रियों का भी उपनयन संस्कार कराया जाता था। उन्हें ब्रह्मचर्य का भी पालन करना होता था। अविवाहित पुत्रियां अपने माता-पिता के संरक्षण में उन्हीं के गृह में रहती थीं। पुत्रों के जन्म पर पुत्रियों के जन्म की अपेक्षा कहीं अधिक खुशी मनाई जाती थी तथा ‘पुत्रवती भव’ का आशीर्वाद पूरा होने की कामना की जाती थी। किन्तु पुत्र के स्थान पर पुत्री का जन्म हो जाने पर उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। पुत्री के लालन-पालन पर भी पूरा ध्यान दिया जाता था तथा उसे शिक्षित होने का अधिकार था। उत्तरवैदिक काल में धीरे-धीरे उन विचारों का जन्म हुआ जिनमें पुत्री के जन्म को अशुभ घटना माना जाने लगा.

उपनिषद् युग में -
उपनिषद् युग में पुत्रियों को ज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त स्वतंत्रता थी। वे वेदों का अध्ययन कर सकती थीं। वे वेद तथा तत्व-ज्ञान संबंधी विषयों पर पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ अर्थात् वाद-विवाद कर सकती थीं। पुरुष के जीवन को स्त्री के बिना अपूर्ण समझा जाता था। अतः पुत्री के जन्म को शोक का कारण नहीं समझा जाता था। पुत्रियों को विवाह के उपरान्त अधिक अधिकार प्राप्त होते थे। विवाह के पूर्व उन्हें अपने माता-पिता के पूर्ण संरक्षण में रहना होता था। विदुषी पुत्रियां समाज में विशेष सम्मान पाती थीं।


(इस आलेख को विस्तार से मेरी पुस्तक ‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’ में पढ़ें।)

Monday, December 09, 2013

Tuesday, December 03, 2013

भारतीय मूर्तिकला में प्रतीक तत्व (Symbolic element in Indian sculpture)




- डॉ शरद सिंह 
 
         
    प्रतीक अप्रस्तुत को प्रस्तुत करता है। अमूर्त को मूर्त करता है। सम्पूर्ण बीजगणित की गणितीय प्रणाली प्रतीकों पर निर्भर है क्योंकि उसमें ‘अ’ ‘ब’ ‘स’ अप्रस्तुत का प्रतिनिधित्व करते हैं। आध्यात्म में यही है। ‘ऊॅ’ - ब्रह्मा के लिए, परम, चरम एवं चिरन्तन सत्य के लिए प्रयुक्त होता है। कुछ चिन्ह भी प्रतीक का कार्य करते हैं, जैसे चक्र विष्णु या कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है। त्रिशूल और डमरु शिव की ओर संकेत करते हैं। मात्रा त्रिशूल का प्रदर्शन शक्ति का प्रतीक होता है।
    आंग्ल भाषा में प्रतीक के लिए ‘सिम्बल’ (Symbol) शब्द प्रयुक्त हुआ है। सिम्बल अथवा प्रतीक के कुछ अर्थ यहां प्रस्तुत हैं:-
    ‘‘एक प्रतीक जो कि किसी अन्य परम्परा अथवा रीति-रिवाज का प्रतिनिधित्व करता हो, एक प्रतीक धार्मिक सिद्धांत, धार्मिक शिक्षा के सार अथवा विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठान का प्रतिनिधित्व करता हो।’’- चेम्बर्स ट्वेंटीन्थ सेंचुरी डिक्शनरी, 1983 पृ. 1309
    ‘‘संकेत अथवा वस्तु पुनस्र्मरण कराता हो, किसी वस्तु का प्रतीक अथवा प्रतिनिधित्व करता हो, चिन्ह अथवा संकेत किसी विधि-विधान अथवा क्रिया अथवा दमित वस्तु का प्रतिनिधित्व करता हो, अज्ञात को प्रस्तुत करने वाला, स्मरण कराने वाला आदि।’’ - द न्यू लेक्सिकन वेब्सटर्स इनसाइक्लोपीडिक डिक्शनरी आॅफ द इंग्लिश लैंग्वेज, डीलक्स संस्करण, संशोधित एवं परिवर्धित 1992, पृ. 1002
Brahma

‘‘कुछ ऐसा जो प्रतिनिधित्व के लिए प्रदर्शित हो, अथवा किसी अन्य का अर्थ रखता हो, एक लौकिक वस्तु जो अलौकिक अथवा अमूर्त का प्रतिनिधित्व करती हो, एक वस्तु जो किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करती हो, वह तत्व जो ईसा के शरीर और रक्त में से किसी एक अथवा दोनों में से प्रत्येक का प्रतिनिधित्व करता हो।’’- द शाॅर्ट आॅक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी आॅन हिस्टोराईड प्रिंसीपल्स, वाल्यूम सेकेंड, तृतीय संस्करण, 1944, पृ. 2109
    ‘‘मूल रूप से और बहुधा वह जटिल कलात्मक स्वरूप अथवा संकेत जो धार्मिक अंतर्वस्तु के मूल तत्व के लिए प्रयुक्त होता है । प्रतीक ‘अभिप्राय’ के अर्थ में विभिन्न रूपों में पाया जाते हैं -
        1. मानवतारोपी अथवा मानवीकरण अभिप्राय
            (Anthropomorphic Motifs) 
        2. सैद्धांतिक अथवा पशुरूपी अभिप्राय
           (Theriomorphic or Zoomorphic Motifs)
        3. संकरित अभिप्राय
           (Hybrid Motifs)
        4. वर्णिक अभिप्राय
            (Chromatomorphic Motifs)
        - द न्यू इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, वाल्यूम - 17, पृ. 900   
    उन्नीसवीं सदी के अंत तथा बीसवीं सदी के आरम्भ में योरोपीय साहित्य में ‘सिम्बोलिज्म’ अर्थात् ‘प्रतीकात्मकता’ का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इसका प्रयोग योरोप के प्रकृतिवादी एवं यथार्थवादी आन्दोलनकारियों ने शुरू किया। ये आंदोलनकारी ‘प्रतीकात्मकतावादी’ (Symboist) कहलाए। प्रतीकात्मकवादी मेलार्म (Mallarme) ने प्रतीकात्मकता को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि यह काव्य को अर्थवत्ता और संगीत की शक्ति है जो किसी भी भाषा माध्यम से अधिक महत्वपूर्ण है। मेलार्म और वेलेरी की विशुद्ध प्रतीकात्मकता के तत्व हाॅकिन्स, इलियट, प्रोस्ट एवं जोई की रचनाओं में मिलते हैं। संगीत में प्रतीकात्मकता को लाने का श्रेय डेबूसी (Debussy) को है। इसी प्रकार नाट्य कला में मेटरलिंक (Maeterlink) ने प्रतीकवाद का समावेश किया। इस प्रकार साहित्य की विविध विधाओं के साथ-साथ चित्राकला और मूर्तिकला में प्रतीकात्मकता के तत्व प्रचलन में आए।
Symbols

    प्रतीकात्मकता (Symbolism) का अर्थ है:-
        1. ‘‘प्रतीकों अथवा संकेतों के द्वारा प्रतिनिधित्व, प्रतीक व्यवस्था, उन्नीसीं सदी के अंत में
        कला एवं काव्य में जन्म वह आन्दोलन जो वास्तविकता की ओर संकेत करने अथवा किसी
        अन्य महत्वपूर्ण तथ्य को प्रस्तुत करने में विश्वास रखता था।’’   
        - चेम्बर्स ट्वेंटीन्थ सेंचुरी डिक्शनरी, 1983, पृ. 1309-10
        2. ‘‘प्रतीकों के द्वारा प्रतिनिधित्व, प्रतीक व्यवस्था, वे सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक गतिविधियां
        जो प्रतीकात्मवादी अपनाते थे।’’
        - द न्यू लेक्सिकन वेब्सटर्स इनसाइक्लोपीडिक डिक्शनरी आॅफ द इंग्लिश लैंग्वेज, डीलक्स
        आॅफ संस्करण, 1992, पृ. 1002
        3. ‘‘वह क्रियान्वयन जिसमें प्रतीकात्मवादी वस्तुओं को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करते थे, प्रतीक
        व्यवस्था, वस्तु अथवा क्रिया को प्रतीक रूप प्रदान करना।’’
        - द शार्टर आॅक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी आॅन हिस्टोराईड प्रिंसीपल्स, वाल्यूम सेकेंड,
        तृतीय संस्करण, 1944, पृ. 2109 
Laxami

    सारांशतः किसी विस्तृत बात को संक्षेप में और सुन्दरता से कहे जाने का ढंग प्रतीक कहलाता है। किसी तथ्य को स्पष्ट अथवा सीधे सरल शब्दों में अभिव्यक्त करने के बदले यदि लालित्यपूर्ण सांकेतिक शैली में व्यक्त किया जाए तो प्रतीक शैली कही जाती है। इसी प्रकार मूर्तिकला में लौकिक-अलौकिक तथ्यों की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का प्रचलन है। देवता तथा उससे संबंधित विचारों की अभिव्यक्ति प्रतीकों के द्वारा होती है। भारतीय मूर्तिकला में प्रतीकों के माध्यम से देव प्रतिमा का समीकरण भी किया जाता है। देवता के चिन्तन के साथ ही उपने प्रतीक तत्व भी स्मृति में उभर आते हैं। इस प्रकार प्रतीक तत्व प्रतिमा और उससे संबंधित विचारों को परस्पर जोड़ने का कार्य करते हैं। प्रतीकों की प्रमुखता के कारण प्राचीन भारतीय मूर्तिकला ‘प्रतीकात्मक कला’ कही जाती है। प्रतीकों का सर्वाधिक सुन्दर और सार्थक प्रदर्शन भारतीय मूर्तिकला की विशेषता कही जा सकती है।
    खजुराहो के मंदिरों में अंकित मूर्तियों में विविध प्रकार के प्रतीकों का प्रदर्शन किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन प्रतीक तत्वों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:-
                   (अ)   आयुध प्रतीक (
Weapon Symbol)              
                   (ब)    वाहन प्रतीक (Vehicle Symbol)                  
                   (स)    मांगलिक प्रतीक (Auspicious symbols)
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Thursday, July 11, 2013

नचना कुठारा का पार्वती मंदिर

- डॉ. शरद सिंह

नचना कुठारा मध्य प्रदेश के पन्ना ज़िले में स्थित है। यह अपने मंदिर के लिए विशिष्ट रूप से जाना जाता है। नचना कुठारा के मंदिर पूर्व गुप्त कालीन वास्तुकला का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
 
Ardhanarishwar OF NACHANA KUTHARA
जनरल कनिंघम के अनुसार यह देवी पार्वती का मंदिर है। मंदिर का गर्भगृह 15½ फुट बाहर और 8 फुट अंदर से है। गर्भगृह के चारों ओर पटा हुआ प्रदक्षिणा मार्ग 33 फुट बाहर और 26 फुट अंदर से है। मंडप 26 फुट × 12 फुट है। 

मंदिर के बाहर प्रांगण में विषपायी शिव की चतुर्मुखी प्रतिमा है जिसमें शिव के खुले हुए मुख के भाव विष की कड़वाहट को प्रदर्शित करते हैं।
GANGA OF NACHANA KUTHARA

नचना में राम के वनगमन की बहुत सुन्दर प्रतिमा मौजूद है। इसमें राम, सीता और लक्ष्मण को दिखाया गया है। यहां उपलब्ध अन्य प्रतिमाएं भी अत्यंत कलात्मक एवं नयनाभिराम हैं।
PARVATI TEMPLE OF NACHANA KUTHARA




Friday, May 03, 2013

अजेय कालिंजर ....







- डॉ. शरद सिंह


कालिंजर बुंदेलखंड का ऐतिहासिक और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर है। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। यहां का किला भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। 9वीं से 15वीं शताब्दी तक यहां चन्देल शासकों का शासन था। चन्देल राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक,शेर शाह सूरी और हुमांयू ने आक्रमण किए लेकिन जीतने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बावजूद मुगल कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: 1569 में अकबर ने यह किला जीता और अपने नवरत्नों में एक बीरबल को उपहारस्वरूप प्रदान किया। बीरबल क बाद यह किला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। छत्रसाल के बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का अधिकार हो गया। 1812 में यह किला अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। एक समय कालिंजर चारों ओर से ऊंची दीवार से घिरा हुआ था और इसमें चार प्रवेश द्वार थे। वर्तमान में कामता द्वार, पन्ना द्वार और रीवा द्वार नामक तीन प्रवेश द्वार ही शेष बचे हैं। 
 
 Kalinjar Fort Gate










विंध्याचल की पहाड़ी पर 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह किला इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह है। किले में आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्ध भद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा नामक सात द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। किले के भीतर राजा महल और रानी महल नामक शानदार महल बने हुए हैं। महल में सीता सेज नामक एक छोटी गुफा है जहां एक पत्थर का पलंग और तकिया रखा हुआ है जो एक जमाने में एकांतवास के तौर पर इस्तेमाल की जाती थी। किले में जलाशय भी है जिसे पाताल गंगा नाम से जाना जाता है। साथ ही यहां के पांडु कुंड में चट्टानों से निरंतर पानी टपकता रहता है। किले के बुड्ढ-बुड्ढी ताल के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है।
 
Godless Kali
शिवपुराण के अनुसार समुद्र मंथन से गरल निकलने पर शिव ने उसे अपने गले में धारण कर लिया। जिससे गले में तेज जलन होने लगी।  तब भगवान शिव शीतलता की तलाश में आकाशमार्ग से चल पड़े। आकाशमार्ग से जाते समय उन्हें कालंजर पर्वत पर शीतलता का अनुभव हुआ और वे वहीं ठहर गए। वहां उस समय देवी काली का स्थान था। कालंजर में ही उन्होंने देवी काली के साथ विवाह किया जो बाद में कामाख्या चली गईं।
 
Mandapa
 शेरशाह सूरी ने जब कालिंजर पर आक्रमण किया तो उसे महीनों घेरा डाले रहना पड़ा। परेशान हो कर उसने खुद आगे बढ़ कर गोले दगवाने शुरू किए। एक गोला दुर्ग की दीवार से टकरा कर बारूद के ढेर पर गिरा जिससे शेरशाह बुरी तरह जख्मी हो गया। ये जख्म ही उसकी मौत का कारण बने और कालिंजर अजेय रहा।
 
Mandapa

 यहां के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। 
 
Lord Shiva

इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ व बलखंडेश्वर, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह शूरी का मकबरा, हुमायूं की छावनी आदि हैं।

Banke Bihari Temple



Monday, April 01, 2013

ऐतिहासिक ऐरण



- डॉ. शरद सिंह

600 ई.पू. के लगभग सागर ज़िले का सम्पूणर् भू-भाग चेदि जनपद में सम्मिलित था। बौद्धकाल में विदिशा व्यापारिक मार्गों का केन्द्र बिन्दु था । एरण से होता हुआ एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग उज्जैनी से विदिशा तक जाता था । इस मागर् में सागर ज़िले का भू-भाग स्थित था । महाभारतकाल में भीम ने हस्तिनापुर से प्रस्थान कर दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था । महाभारत के दूसरे पर्व के  उन्तीसवें अध्याय  में उल्लेख मिलता है कि पांडुपुत्र भीम ने भी हस्तिनापुर की दिशा से दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था । इसी प्रकार दूसरे पर्व के इकतीसवें अध्याय  में वर्णित है कि पांडुपुत्र सहदेव ने माहिष्मती के आगे त्रिपुरी और उसके दक्षिणवर्ती प्रदेशों पर विजय  प्राप्त की थी ।  कालिदास के मेघदूत में जिस रामटेक -अमरकंटक अर्थात विदिशा-उज्जैन मार्ग का उल्लेख किया गया है उस पर भी सागर स्थित था । इसके अतिरिक्त महाभाष्य  में भी इस तथ्य  की चर्चा है कि  भरहुत, कोशाम्बी मार्ग  सागर से हो कर गुजरता था ।

 इतिहासकार अलबरूनी ने भी बुन्देलखण्ड की तत्कालीन स्थितियों का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि  इस क्षेत्र से होता हुआ एक मार्ग खजुराहो से कन्नौज तक जाता था ।  प्राचीन राजपथ पर स्थित होने के कारण सागर क्षेत्र का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व प्राचीनकाल से ही रहा ।

बौद्धकाल में सागर चेदि जनपद के अंतगर्त अवंति राज्य  के आधीन रहा । चण्डप्रद्योत के शासनकाल में भी सागर अवंति के अंतर्गत था । ई.पू.413 से 395 ई.पू. के मध्य  सागर का क्षेत्र मगध साम्राज्य  के अंतगर्त आ गया । 345 ई.पू. नंदवंश की स्थापना के बाद चौथी शती ई.पू. में सागर क्षेत्र दशार्णा जनपद के अंतर्गत था । मौर्य काल में दो स्वतंत्र शासकों राजा धर्मपाल और राजा इन्द्रगुप्त ने एरण के पर शासन किया । एरण से धर्मपाल के सिक्के तथा इन्द्रगुप्त की प्रशासकीय मुद्रा प्राप्त हुई है ।
 
तीसरी शताबदी के उत्तरार्द्ध में नागवंशीय  राजाओं ने शक-क्षत्रपों के स्थान पर अपनी सत्ता स्थापित की । एरण से नागराजा गणपति नाग और रविनाग की मुद्राएं मिली हैं । यहीं से दूसरी-तीसरी शताबदी की एक नागपुरुष प्रतिमा भी प्राप्त हुई है । लगभग 34 ई. में सागर क्षेत्र गुप्त राजाओं के आधीन चला गया । समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ अभिलेख तथा एरण अभिलेख से ज्ञात होता है कि एरण सहित सागर गुप्त साम्राज्य  के आधीन था । चन्द्रगुप्त द्वितीय  ने एरण के निकट  शक राज का वध किया था । तत्पश्चात, उसने अपने अग्रज रामगुप्त की पत्नी ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया था । रामगुप्त की मुद्राएं एरण तथा विदिशा से प्राप्त होती हैं ।


ऐरण की गुप्तयुगीन विष्णु प्रतिमा में गोलाकार प्रभा मण्डल, शैल के विकसित स्वरुप का प्रतीक है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के एक शिलालेख में एरण को 'एरकिण' कहा गया है। इस अभिलेख को कनिंघम ने खोजा था। यह वर्तमान में कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित है। यह भग्नावस्था में हैं। फिर भी जितना बचा है, उससे समुद्रगुप्त के बारे में काफ़ी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें समुद्रगुप्त की वीरता, सम्पत्ति-भण्डार, पुत्र-पौत्रों सहित यात्राओं पर उसकी वीरोचित धाक का विशद वर्णन है। यहाँ गुप्त सम्राट बुद्धगुप्त का भी अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है, कि पूर्वी मालवा भी उसके साम्राज्य में शामिल था। इसमें कहा गया है कि बुद्धगुप्त की अधीनता में यमुना और नर्मदा नदी के बीच के प्रदेश में 'महाराज सुरश्मिचन्द्र' शासन कर रहा था। एरण प्रदेश में उसकी अधीनता में मातृविष्णु शासन कर रहा था। यह लेख एक स्तम्भ पर ख़ुदा हुआ है, जिसे ध्वजास्तम्भ कहते हैं। इसका निर्माण महाराज मातृविष्णु तथा उसके छोटे भाई धन्यगुप्त ने करवाया था। यह आज भी अपने स्थान पर अक्षुण्ण है। यह स्तम्भ 43 फुट ऊँचा और 13 फुट वर्गाकार आधार पर खड़ा किया गया है। इसके ऊपर 5 फुट ऊँची गरुड़ की दोरुखी मूर्ति है, जिसके पीछे चक्र का अंकन है। एरण से एक अन्य अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो 510 ई. का है। 
          समुद्रगुप्त के ऐरण अभिलेख में लिखा हुआ है : ‘‘स्वभोग नगर ऐरिकरण प्रदेश...,’’ यानि स्वभोग के लिए समुद्रगुप्त ऐरिकिण जाता रहता था। बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है। 


इसकी समय पन्ना नागौद क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन गये थे। जिनकी राजधानी गड़पैरा थी दक्षिणी पश्चिमी झांसी–ग्वालियर के अमीर वर्ग के अहीरों की सत्ता थी तो धसान क्षेत्र के परिक्षेत्र में मांदेले प्रभावशाली हो गये थे।
एरण से बुधगुप्त का अभिलेख भी मिला है । लगभग 5वीं शती ई. में एरण पर हूण राजा तोरमान का अधिकार स्थापित हुआ । सन 510 ई. के एरण के गोपराज सतीस्तम्भ लेख में युद्ध में राजा गोपराज के वीरगति पाने के बाद उसकी रानी के सती होने का उल्लेख है । गोपराज गुप्त शासक भानुगुप्त का सामंत था । 
        सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण गुप्तकाल में मिलता है 510 ई.पू. के एक लेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश भानुगुप्त का सामन्त गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ मारा गया और उसकी पत्नी उसके शव के साथ सती हो गई थी।
      एरण में गुप्तकालीन नृसिंह मन्दिर, वराह मन्दिर तथा विष्णु मन्दिर पाये गये हैं। ये सब अब खण्डहर हो के हैं।  

Sunday, February 10, 2013

भीम कुण्ड : जहां विष्णु तरल रूप में हैं




- डॉ.सुश्री शरद सिंह

सुरम्य प्राकृतिक स्थलों में देवताओं का वास होता है. एक ऐसा ही सिद्ध क्षेत्रा तीर्थ स्थल है भीम कुण्ड. विश्व प्रसिद्ध कलातीर्थ खजुराहो से लगभग 128 कि.मी. दूर स्थित भीम कुण्ड आदिकाल से ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों एवं साधकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है. वर्तमान समय में यह धार्मिक-पर्यटन एवं वैज्ञानिक शोध का केन्द्र भी बनता जा रहा है. यहां स्थित जल-कुण्ड भू-वैज्ञानिकों के लिए कौतूहल का विषय रहा है. अनेक शोधकर्ता इस जलकुण्ड में कई बार गोताखोर उतार चुके हैं किन्तु इस जलकुण्ड की थाह आज तक कोई भी नहीं पा सका है.

 पौराणिक ग्रंथों में भीम कुण्ड का नारद कुण्ड तथा नील कुण्ड के नाम से भी उल्लेख मिलता है. भीम कुण्ड के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं. जिनमें से प्रमुख हैं- देवर्षि नारद द्वारा साम गान का गायन तथा  भीम द्वारा गदा प्रहार द्वारा जल स्रोत प्रकट करना.

देवर्षि नारद द्वारा साम गान का गायन - पौराणिक कथा के अनुसार एक बार देवर्षि नारद आकाश मार्ग से विचरण कर रहे थे. रास्ते में उन्हें अनेक विकलांग स्त्री-पुरुष दिखाई पड़े. वे स्त्री-पुरुष न केवल विकलांग थे अपितु घायल भी थे तथा कराह रहे थे. यह दृश्य देख कर देवर्षि नारद दुखी हो गए. वे उन स्त्री-पुरुषों के पास पहुंचे और उन्होंने उनसे उनका परिचय पूछा. उन स्त्री-पुरुषों ने बताया कि वे संगीत की राग-रागिनियां हैं. यह सुन कर देवर्षि नारद को बहुत आश्चर्य हुआ. उन्होंने राग-रागिनियों से पूछा कि तुम लोगों की ये दशा कैसे हुई बताओ तथा तुम्हारे दुख-कष्ट को दूर करने के लिए मैं क्या कर सकता हूं, यह भी बताओ. देवर्षि नारद के पूछने पर राग-रागिनियों ने बताया कि पृथ्वी पर स्थित अनाड़ी गायक-गायिकाओं द्वारा दोषपूर्ण गायन के कारण हमारे अस्तित्व को क्षति पहुंची है. अब तो हमारा उद्धार तभी हो सकता है जब संगीत विद्या में निपुण कोई कुशल गायक साम गान का गायन करे.
देवर्षि नारद साम गान के ज्ञाता थे. राग-रागिनियों की बात सुन कर वे स्वयं को रोक नहीं सके और उन्होंने साम गान का गायन प्रारम्भ कर दिया. देवर्षि नारद का स्वर तीनों लोकों में व्याप्त होने लगा. देवता साम गान के स्वरों में मग्न होने लगे. भगवान शिव नर्तन कर उठे तथा भगवान ब्रह्मा ताल देने लगे. साम गान के स्वरों को सुन कर तथा इस अलौकिक दृश्य को देख कर भगवान विष्णु इतने भावविभोर हो उठे कि वे द्रवीभूत हो कर उसी स्थान पर जा पहुंचे जहां पीडि़त राग-रागिनियां एकत्रा थीं. द्रवीभूत विष्णु का स्पर्श पा कर राग-रागिनियां स्वस्थ हो गईं. उन्होंने भगवान विष्णु से निवेदन किया कि वे द्रवीभूत रूप में सदा के लिए उसी स्थान में रुक जाएं जिससे अन्य पीडि़तों का भी उद्धार हो सके. भगवान विष्णु ने राग-रागिनियों की प्रार्थना स्वीकार कर ली और नील-जल के रूप में वहीं एक कुण्ड में ठहर गए. यही कुण्ड नारद कुण्ड, नील कुण्ड तथा भीम कुण्ड के नामों से पुकारा जाता है. इस कुण्ड का वर्षा ऋतु के जल जलधर बादलों की भांति नीले रंग का दिखाई पड़ता है.
 एक अन्य कथा के अनुसार देवर्षि नारद ने भवान विष्णु की स्तुति में गंधर्व गायन प्रस्तुत किया जिससे विष्णु अभीभूत हो उठे. वे भावातिरेक में एक जल कुण्ड में परिवर्तित हो गए तथा उनकी श्यामल त्वचा द्रवित हो कर नीले जल में परिवर्तित हो गई.  

भीम द्वारा गदा प्रहार द्वारा जल स्रोत प्रकट करना - दूसरी बहुप्रचलित कथा भीम के द्वारा अपने गदा से भूमि पर प्रहार कर जल स्रोत प्रकट करने की है. इस कथा के अनुसार महाभारत काल में द्यूत-क्रीड़ा में कौरवों से पराजित होने के बाद पांडव अज्ञातवास के लिए निकल पड़े. एक सघन वन से गुजरते समय द्रौपदी को बड़ी जोर की प्यास लगी. पांचो भाइयों ने आस-पास पानी ढूंढा किन्तु वहां पानी का कोई स्रोत नहीं था. उन्होंने द्रौपदी को धीरज बंधाया और कुछ दूर और चलने को कहा. द्रौपदी भी अपनी प्यास पर नियंत्राण रखने का प्रयास करती हुई आगे बढ़ी. किन्तु कुछ दूर जाने पर द्रौपदी का प्यास के मारे बुरा हाल हो गया. वह मूर्छित हो कर गिर पड़ी. पांडवों ने पुनः पानी तलाशा. वहां आस-पास पानी की एक बूंद भी नहीं थी. उन्हें ऐसा लगा कि यदि द्रौपदी को अविलम्ब पानी नहीं मिला तो उसके प्राण-पखेरू उड़ जाएंगे. इस विकट स्थिति में स्वयं को हरसंभव प्रयत्न से शांत रखते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने नकुल को स्मरण कराया कि उसके पास यह क्षमता है कि वह  पाताल की गहराई में स्थित जल का भी पता लगा सकता है.
युधिष्ठिर का कथन स्वीकार करते हुए नकुल ने भूमि को स्पर्श करते हुए ध्यान लगाया. दूसरे ही पल उसे पता चल गया कि किस स्थान पर जल स्रोत है. अब समस्या थी भूमि को भेद कर जल प्राप्त करने की. भीम द्रौपदी की दशा देख कर पहले ही क्रोध से व्याकुल हो रहे थे, जब उन्होंने देखा कि जल स्रोत का पता चलने पर भी जल के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं तो उहोंने क्रोधित हो कर अपनी गदा उठाई और नियत स्थान पर गदा से प्रहार किया. 

भीम की गदा के प्रहार से भूमि की कई पर्तों में छेद हो गया और जल दिखाई देने लगा. किन्तु भूमि की सतह से जल स्रोत लगभग 30फिट नीचे था. न तो वहां तक मूर्छित द्रौपदी को ले जाया जा सकता था और न ही जल को द्रौपदी तक लाया जा सकता था. ऐसी स्थिति में युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि अब तुम्हें अपनी धनुर्विद्या के कौशल से जल तक पहुंच मार्ग बनाना होगा. यह सुन कर अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाया और अपने बाणों से जल स्रोत तक सीढि़यां बना दीं. धनुष की सीढि़यों से द्रौपदी को जल स्रोत तक ले जाया गया. चूंकि भीम की गदा के प्रहार से भूमि में जो कुण्ड बना, वही कुण्ड भीम कुण्ड कहलाया. इस स्थान पर द्रौपदी सहित पाण्डवों ने कुछ समय व्यतीत किया था.
निष्क्रिय ज्वालामुखी - कुछ लोग भीम कुण्ड को निष्क्रिय ज्वालामुखी मानते हैं क्यों कि यह पर्वतीय स्थल में गुफा के भीतर कठोर चट्टानों के बीच जल कुण्ड के रूप में स्थित है तथा कुण्ड की गहराई अथाह है. अब तक कई भू-वैज्ञानिकों ने गोताखोरों द्वारा इसकी गहराई का पता लगाने का प्रयास किया है किन्तु उन्हें कुण्ड का तल नहीं मिला. कुण्ड के तल के बदले लगभग अस्सी फिट की गहराई में तेज जलधाराएं प्रवाहमान मिलीं जो संभवतः इसे समुद्र से जोड़ती हैं. भीम कुण्ड की गहराई भू वैज्ञानिकों के लिए आज रहस्य बनी हुई है. यह भी उल्लेखनीय है कि इस जल कुण्ड का जल-स्तर कभी कम नहीं होता है.
यह जल-कुण्ड वस्तुतः एक गुफा में स्थित है. जल-कुण्ड के ठीक ऊपर वर्तुलाकार बड़ा-सा छेद (कटाव) है जिसके सूर्य की किरणें कुण्ड की जलराशि पर पड़ती है. सूर्य की किरणों में इस जलराशि में मोरपंख के रंगों की आभा झलकती है. यह कहा जाता है कि इस कुण्ड में डूबने वाले का मृत शरीर कभी ऊपर नहीं आता है. इस कुण्ड में डूबने वाला व्यक्ति सदा के लिए अदृश्य हो जाता है. 

भीम कुण्ड के प्रवेश द्वार तक जाने वाली सीढि़यों के ऊपरी सिरे पर चतुर्भुज विष्णु तथा लक्ष्मी का विशाल मंदिर बना हुआ है. विष्णु अपने तीन हाथों में गदा, चक्र एवं शंख धारण किए हुए हैं तथा एक हाथ अभय मुद्रा में है. लक्ष्मी अपने दाएं हाथ में कमल के दो अविकसित पुष्प लिए हुए हैं तथा बायां हाथ दान मुद्रा में है. श्वेत पत्थर से निर्मित दोनों प्रतिमाओं के चेहरे पर स्मित-हास का भाव मन में आनन्द का संचार कर देता है.  विष्णु-लक्ष्मी के मंदिर के समीप विस्तृत प्रांगण में एक प्राचीन मंदिर स्थित है. जिसके ठीक विपरीत दिशा में एक पंक्ति में छोटे-छोटे तीन मंदिर बने हुए हैं जिनमें क्रमशः लक्ष्मी-नृसिंह, राम-दरबार तथा राधा-कृष्ण के मंदिर हैं. 

वस्तुतः भीम कुण्ड एक ऐसा विशिष्ट तीर्थ स्थल है जहां ईश्वर और प्रकृति एकाकार रूप में विद्यमान हैं तथा जहां पहुंच कर प्रकृतिक विशेषताओं के रूप में ईश्वर की सत्ता पर स्वतः विश्वास होने लगता है.