पुत्री के रूप में
प्राचीन
भारतीय समाज में पुत्रियों को भावी स्त्री के रूप में संतति में वृद्धि
करने वाली माना जाता था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें शिक्षा से
वंचित रखा जाता रहा हो, पुत्रियों को भी शिक्षा दी जाती थी तथा विदुषी
पुत्री को समाज में सराहना मिलती थी। फिर भी विभिन्न युगों में समाज में
पुत्री की स्थिति में अन्तर आता गया।सैन्धव काल में - सिन्धु घाटी सभ्यता में पुत्रियों की स्थिति का अनुमान स्त्रियों के आभूषण, देवी भगवती की मूर्ति तथा नर्त्तकी की मूर्ति से लगाया जा सकता है। सैन्धव समाज में जननी की भूमिका निभाने वाली स्त्री का विशेष स्थान था। अतः पुत्रियों के जन्म को भी सहर्ष स्वीकार किया जाता रहा होगा। उन्हें शिक्षा दी जाती थी तथा नृत्य, गायन, वादन आदि विभिन्न कलाओं में निपुणता प्राप्त करने का अवसर दिया जाता था।
वैदिक युग में -वैदिक युग में स्त्री का समाज में पुरुषों के समान सम्मान था। पुरुष सत्तात्मक समाज में पुत्र के जन्म की कामना सदैव रही है। पुत्रों को युद्ध में षत्रुओं को पराजित करने के लिए योग्य माना जाता था। इसी भावना के कारण वैदिक युग में भी कुछ ऐसे धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे जो पुत्र जन्म से संबंधित होते थे। अथर्ववेद में इसी प्रकार के एक धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख मिलता है जो पुत्र प्राप्ति की कामना से किया जाता था। किन्तु वैदिक ग्रंथों में ही कुछ ऐसे अनुष्ठानों का भी उल्लेख है जो पुत्री प्राप्त करने की लालसा से किए जाते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में इसी प्रकार के एक अनुष्ठान का उल्लेख है जो विदुषी पुत्री प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता था।
वैदिक युग में पुत्री के जन्म पर शोक मनाने का उल्लेख किसी भी वैदिक ग्रंथ में नहीं मिलता है। ऋग्वैदिक काल में लोपामुद्रा, घोषा, निवावरी, सिकता, विश्ववारा आदि अनेक ऐसी स्त्रियां हुईं जिन्होंने ऋचाएं लिख कर ऋग्वेद को समृद्ध किया। वैदिक युग में पुत्रियों के लिए योग्य वर मिलना कठिन नहीं था। स्त्रियों को नियोग एवं पुनर्विवाह की भी अनुमति थी अतः माता-पिता के लिए पुत्री का जन्म चिन्ता का विषय नहीं होता था। पुत्रियों को इच्छानुसार शिक्षा पाने का अधिकार था। वे ज्ञान प्राप्त करती हुई एकाकी जीवन भी व्यतीत कर सकती थीं। उन्हें युवा होने पर अपनी इच्छानुसार वर चुनने का भी अधिकार था।
उत्तरवैदिक युग में
उत्तरवैदिक
युग में पुत्रियों की स्थिति ठीक वैसी नहीं रही जैसी कि वैदिक युग में थी।
उत्तरवैदिक काल में यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान करने का अधिकार पुत्रों को
दिया गया। पुत्रियां यज्ञ में सहभागी हो सकती थीं किन्तु यज्ञ नहीं कर सकती
थीं। पुत्रियों को भी आश्रम व्यवस्था का पालन करना होता था। अथर्ववेद के
अनुसार पुत्रियां लगभग 16 वर्ष की आयु तक अविवाहित रहती थीं। 16 वर्ष की
आयु पूर्ण कर लेने पर पुत्रों की भांति पुत्रियों का भी उपनयन संस्कार
कराया जाता था। उन्हें ब्रह्मचर्य का भी पालन करना होता था। अविवाहित
पुत्रियां अपने माता-पिता के संरक्षण में उन्हीं के गृह में रहती थीं।
पुत्रों के जन्म पर पुत्रियों के जन्म की अपेक्षा कहीं अधिक खुशी मनाई जाती
थी तथा ‘पुत्रवती भव’ का आशीर्वाद पूरा होने की कामना की जाती थी। किन्तु
पुत्र के स्थान पर पुत्री का जन्म हो जाने पर उसकी उपेक्षा नहीं की जाती
थी। पुत्री के लालन-पालन पर भी पूरा ध्यान दिया जाता था तथा उसे शिक्षित
होने का अधिकार था। उत्तरवैदिक काल में धीरे-धीरे उन विचारों का जन्म हुआ
जिनमें पुत्री के जन्म को अशुभ घटना माना जाने लगा.
उपनिषद् युग में -
उपनिषद्
युग में पुत्रियों को ज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त स्वतंत्रता थी। वे
वेदों का अध्ययन कर सकती थीं। वे वेद तथा तत्व-ज्ञान संबंधी विषयों पर
पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ अर्थात् वाद-विवाद कर सकती थीं। पुरुष के जीवन
को स्त्री के बिना अपूर्ण समझा जाता था। अतः पुत्री के जन्म को शोक का कारण
नहीं समझा जाता था। पुत्रियों को विवाह के उपरान्त अधिक अधिकार प्राप्त
होते थे। विवाह के पूर्व उन्हें अपने माता-पिता के पूर्ण संरक्षण में रहना
होता था। विदुषी पुत्रियां समाज में विशेष सम्मान पाती थीं।(इस आलेख को विस्तार से मेरी पुस्तक ‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’ में पढ़ें।)