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Wednesday, November 27, 2024

विश्व के प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग का एक अहम हिस्सा था एरण | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
विश्व के प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग का एक अहम हिस्सा था एरण
   - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
          एरण वह स्थान है जो प्रशासनिक लापरवाहियों के चलते कभी धुंधलके में गुम हो गया, तो कभी सहसा उभर कर सामने आया। इसी तरह उतार-चढ़ाव को जीते हुए एरण ने न जाने कितनी सदियां देखी हैं। बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि एरण कभी व्यवसायिक महत्व का केन्द्र था। जो आज उजड़ा चमन दिखाई देता है, वह कभी गहमागहमी भरा नगर था। वह नगर, जिससे हो कर वैश्विक व्यापारी आजा-जाया करते थे क्योंकि एरण वैश्विक व्यापारिक मार्ग का एक अहम हिस्सा था। सिल्क रोड का एक हिस्सा। 

     भले ही हम सब कुछ जानने का दावा कर लें किन्तु सच तो ये है कि न हम अपना भविष्य जानते हैं, न वर्तमान और अतीत भी पूरी तरह से नहीं जानते। अतीत की कथाओं के कुछ टुकड़े इतिहास के रूप में हमारे कानों से हो कर गुज़रते हैं लेकिन वे हमारे मानस में देर तक ठहरते नहीं हैं। दरअसल हम उन्हें ठहरने देते ही नहीं हैं। जिन्हें इतिहास विषय से प्रेम नहीं है उनके लिए इतिहास पढ़ कर भूल जाने वाला विषय है। हर व्यक्ति वर्तमान में जीना चाहता है और भविष्य के सपने संजोना चाहता है। अतीत को ले कर उसका सरोकार निज-पूर्वजों तक सिमटा रहता है। यही कारण है कि इस देश में अतीत का संास्कृतिक वैभव और समृद्धि होते हुए भी हम उसे सहेज नहीं पाए हैं। जबकि इतिहास ही हमारे वर्तमान की नींव है। अनेक ऐतिहासिक स्थल लगभग भुला दिए गए और वे रख-रखाव के अभाव में गुमनामी के अंधेरे में खो गए। एरण के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। फिर भी जैसे झाड़ियों के झुरमुट के हवाओं से हिलने पर क्षितिज पर चमकता तारा कभी अचानक दिखता है और कभी अचानक छिप जाता है, ठीक वैसे ही एरण का अस्तित्व भी बीच-बीच मे अपनी दस्तक देता रहा है। 

एरण की प्राचीनता  

600 ई.पू. के लगभग सागर जिले का सम्पूण भू-भाग चेदि जनपद में सम्मिलित था। बौद्धकाल में विदिशा व्यापारिक मार्गों का केन्द्र बिन्दु था । एरण से होता हुआ एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग उज्जैनी से विदिशा तक जाता था । इस मार्ग में वर्तमान सागर जिले का भू-भाग स्थित था । महाभारत काल में भीम ने हस्तिनापुर से प्रस्थान कर दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था। महाभारत के दूसरे पर्व के  उन्तीसवें अध्याय  में उल्लेख मिलता है कि पांडुपुत्र भीम ने भी हस्तिनापुर की दिशा से दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था । इसी प्रकार दूसरे पर्व के इकतीसवें अध्याय  में वर्णित है कि पांडुपुत्र सहदेव ने माहिष्मती के आगे त्रिपुरी और उसके दक्षिणवर्ती प्रदेशों पर विजय  प्राप्त की थी । दशार्ण राज हिरण्य वर्मा की पुत्री हिरण्यमयी का विवाह द्रुपद के कथित पुत्र शिखण्डी से हुआ था।  कालिदास के मेघदूत में जिस रामटेक -अमरकंटक अर्थात विदिशा-उज्जैन मार्ग का उल्लेख किया गया है उस पर भी सागर का यह भू-भाग स्थित था । इसके अतिरिक्त महाभाष्य  में भी इस तथ्य  की चर्चा है कि  भरहुत, कोशाम्बी मार्ग  सागर से हो कर गुजरता था ।
 इतिहासकार अलबरूनी ने भी बुन्देलखण्ड की तत्कालीन स्थितियों का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि  इस क्षेत्र से होता हुआ एक मार्ग खजुराहो से कन्नौज तक जाता था ।  प्राचीन राजपथ पर स्थित होने के कारण सागर क्षेत्र का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व प्राचीनकाल से ही रहा ।
बौद्धकाल में सागर चेदि जनपद के अंतगर्त अवंति राज्य  के आधीन रहा । चण्डप्रद्योत के शासनकाल में भी सागर अवंति के अंतर्गत था । ई.पू.413 से 395 ई.पू. के मध्य  सागर का क्षेत्र मगध साम्राज्य  के अंतगर्त आ गया । 345 ई.पू. नंदवंश की स्थापना के बाद चैथी शती ई.पू. में सागर क्षेत्र दशार्णा जनपद के अंतर्गत था । मौर्य काल में दो स्वतंत्र शासकों राजा धर्मपाल और राजा इन्द्रगुप्त ने एरण के पर शासन किया । एरण से धर्मपाल के सिक्के तथा इन्द्रगुप्त की प्रशासकीय मुद्रा प्राप्त हुई है ।
तीसरी शताबदी के उत्तरार्द्ध में नागवंशीय  राजाओं ने शक-क्षत्रपों के स्थान पर अपनी सत्ता स्थापित की । एरण से नागराजा गणपति नाग और रविनाग की मुद्राएं मिली हैं । यहीं से दूसरी-तीसरी शताबदी की एक नागपुरुष प्रतिमा भी प्राप्त हुई है । लगभग 34 ई. में सागर क्षेत्र गुप्त राजाओं के आधीन चला गया । समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ अभिलेख तथा एरण अभिलेख से ज्ञात होता है कि एरण सहित सागर गुप्त साम्राज्य  के आधीन था । चन्द्रगुप्त द्वितीय  ने एरण के निकट  शक राज का वध किया था । तत्पश्चात, उसने अपने अग्रज रामगुप्त की पत्नी ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया था । रामगुप्त की मुद्राएं एरण तथा विदिशा से प्राप्त होती हैं ।
ऐरण की गुप्तयुगीन विष्णु प्रतिमा में गोलाकार प्रभा मण्डल, शैल के विकसित स्वरुप का प्रतीक है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के एक शिलालेख में एरण को श्एरकिणश् कहा गया है। इस अभिलेख को कनिंघम ने खोजा था। यह वर्तमान में कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित है। यह भग्नावस्था में हैं। फिर भी जितना बचा है, उससे समुद्रगुप्त के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें समुद्रगुप्त की वीरता, सम्पत्ति-भण्डार, पुत्र-पौत्रों सहित यात्राओं पर उसकी वीरोचित धाक का विशद वर्णन है। यहाँ गुप्त सम्राट बुद्धगुप्त का भी अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है, कि पूर्वी मालवा भी उसके साम्राज्य में शामिल था। इसमें कहा गया है कि बुद्धगुप्त की अधीनता में यमुना और नर्मदा नदी के बीच के प्रदेश में श्महाराज सुरश्मिचन्द्रश् शासन कर रहा था। एरण प्रदेश में उसकी अधीनता में मातृविष्णु शासन कर रहा था। यह लेख एक स्तम्भ पर खुदा हुआ है, जिसे ध्वजस्तम्भ कहते हैं। इसका निर्माण महाराज मातृविष्णु तथा उसके छोटे भाई धन्यगुप्त ने करवाया था। यह आज भी अपने स्थान पर अक्षुण्ण है। यह स्तम्भ 43 फुट ऊँचा और 13 फुट वर्गाकार आधार पर खड़ा किया गया है। इसके ऊपर 5 फुट ऊँची गरुड़ की मूर्ति है, जिसके पीछे चक्र का अंकन है। 
समुद्रगुप्त के ऐरण अभिलेख में लिखा हुआ है  ‘‘स्वभोग नगर ऐरिकरण प्रदेश...,’’ यानि स्वभोग के लिए समुद्रगुप्त ऐरिकिण जाता रहता था। बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है।  इसी समय पन्ना नागौद क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन गये थे। जिनकी राजधानी गढ़पहरा थी। 
एरण से बुधगुप्त का अभिलेख भी मिला है । लगभग 5वीं शती ई. में एरण पर हूण राजा तोरमान का अधिकार स्थापित हुआ । सन 510 ई. के एरण के गोपराज सतीस्तम्भ लेख में युद्ध में राजा गोपराज के वीरगति पाने के बाद उसकी रानी गोपाबाई के सती होने का उल्लेख है । गोपराज गुप्त शासक भानुगुप्त का सामंत था । सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण गुप्तकाल में मिलता है। 510 ई.पू. के एक लेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश भानुगुप्त का सामन्त गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ मारा गया और उसकी पत्नी उसके शव के साथ सती हो गई थी। यह इस क्षेत्र में सती प्रथा का प्रथम अभिलेख माना जाता है।
एरण में गुप्तकालीन नृसिंह मन्दिर, वराह मन्दिर तथा विष्णु मन्दिर पाये गये हैं। यद्यपि ये सब अब खण्डहर हो चुके हैं। एरण की ऐतिहासिकता पर कई शोध कार्य हो चुके हैं जिनमें डाॅ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के इतिहासविद् प्रो. नागेश दुबे और डाॅ. मोहनलाल चढ़ार का कार्य विशेष उल्लेखनीय है। यद्यपि आज से लगभग पांच-छः दशक पहले मुल्कराज आनंद ने अंग्रेजी पत्रिका ‘‘मार्ग’’ में एरण का उल्लेख किया था। 1946 में, उपन्यासकार और सामाजिक कार्यकर्ता मुल्क राज आनंद ने 14 कलाकारों, कला इतिहासकारों और वास्तुकारों के एक समूह के साथ मिलकर स्वतंत्रता की दहलीज पर खड़े भारत में ‘‘मार्ग’’ की स्थापना की। ‘‘मार्ग’’ का पूरा नाम था ‘‘मार्डन आर्किटेक्चरल रिसर्च ग्रुप’’ अर्थात आधुनिक वास्तुकला अनुसंधान समूह। इसी समूह के अंतर्गत 1946 में ही ‘‘मार्ग’’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया गया था। इस पत्रिका में किसी भी ऐतिहासिक स्थल का उल्लेख होने पर उसे वैश्विक पटल पर पुनः पहचान मिलती थी। एरण के बारे में ‘‘मार्ग’’ में चर्चा के बावजूद एरण का उस तरह उद्धार नहीं हो सका जैसाकि अन्य ऐतिहासिक स्थलों का हुआ।     

रेशम मार्ग या सिल्क रोड

एरण जिस प्रसिद्ध वैश्विक व्यापारिक मार्ग पर स्थित था, वह कहलाता था सिल्क रोड। वस्तुतः दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक सिल्क रोड व्यापारिक मार्गों का एक ऐसा संजाल था जो एशिया को भूमध्य सागर और यूरोप से जोड़ता था। सिल्क रोड का नाम उस रेशम के कारण रखा गया था जिसका व्यापार इस मार्ग पर होता था। उस समय मध्य एशिया से ले कर योरोप और भूमध्य सागर के देशों तक रेशम की बहुत मांग थी। चीन में बनने वाला रेशम सिल्क रोड से हो कर दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में बिकने जाता था।  यह उस समय का एक कीमती उत्पाद था। सिल्क रोड रोमन साम्राज्य और चीन के बीच और बाद में मध्ययुगीन यूरोपीय राज्यों और चीन के बीच व्यापार का एक प्रमुख माध्यम था। सिल्क रोड का वाणिज्य, संस्कृति और इतिहास पर स्थायी प्रभाव पड़ा। 
रेशम मार्ग प्राचीनकाल और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह था जिसके माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे। यह चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिस से निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी। रेशम मार्ग का जमीनी हिस्सा 6,500 किमी लम्बा था इसके माध्यम मध्य एशिया, यूरोप, भारत और ईरान में चीन के हान राजवंश काल में पहुंचना शुरू हुआ था। सिल्क रोड का चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के आर्थिक विकास ही नहीं वरन सांस्कृतिक विकास को भी प्रभावित किया। इस मार्ग से परस्पर ज्ञान का प्रसार हुआ एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का परस्पर प्रभाव भी पड़ा। इस मार्ग से सिर्फ चीनी रेशम ही नहीं बल्कि चाय, चीनी मिटटी के बर्तन, भारतीय मसाले, हाथीदांत, रेशमी तथा सूती कपड़े, काली मिर्च और कीमती पत्थर आदि का व्यापार किया जाता था। इसी के साथ रोम से सोना, चांदी, शीशे की वस्तुएँ, शराब, कालीन और गहने एशिया में आते थे।

लापरवाहियों का दुष्परिणाम
 
ऐसे वैश्विक व्यापारिक मार्ग का महत्वपूर्ण केन्द्र एरण देश की स्वतंत्रता के पूर्व तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगातार लापरवाहियों का शिकार रहा। जिससे वहां से ऐतिहासिक महत्व के अनेक अवशेष या तो नष्ट हो गए अथवा चोरों की भेंट चढ़ गए। स्थानीय निवासियों में भी इतिहास के प्रति जागरूकता की कमी के कारण वे भी एरण को पर्याप्त संरक्षण नहीं दे सके। वर्तमान प्रशासन एरण को ले कर जागरूकता का परिचय दिखा रहा है जिससे आशा की जा सकती है कि इस ऐतिहासिक धरोहर को एक लेाकप्रिय पर्यटन स्थल बनने का अवसर मिलेगा जिससे इसके अवशेष संरक्षित हो सकेंगे और यह अपने अस्तित्व को भविष्य में भी आंशिक ही सकी किन्तु भौतिक रूप से जी सकेगा।  
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Friday, May 24, 2024

प्राचीन भारत में उपभोक्ता संरक्षण - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

               Dr (Ms) Sharad Singh
दैनिक नयादौर में मेरे कॉलम "शून्यकाल" में...

प्राचीन भारत में उपभोक्ता संरक्षण
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       वर्तमान समय उपभोक्तावाद का समय माना जाता है। बाज़ार के विस्तार ने उपभोक्ताओं का भी विस्तार किया है और उपभोक्ताओं के लिए उतने ही जोखिम बढ़ा दिए हैं। खरीदते समय अच्छे और बुरे प्रोडक्ट में अंतर जानना कठिन हो चला है। प्रयोग करने के बाद ही सच्चाई सामने आती है और तब ग्राहक स्वयं को ठगा-सा अनुभव करता है। इसीलिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम बनाया गया है। वैसे उपभोक्ताओं का सरंक्षण कोई नूतन विचार नहीं है। प्राचीन भारत में भी उपभोक्ता संरक्षण का प्रावधान था। बल्कि आज की अपेक्षा अधिक कठोर रूप में। 
     जब से मनुष्य ने विनिमय के क्षेत्र में प्रवेश किया तब से उसमें प्राकृतिक रूप से यह जागरूकता आ गई कि चाहे वस्तु के रूप में हो अथवा मुद्रा के रूप में मूल्य चुकाने के बाद उसे जो वस्तु अथवा सुविधा प्राप्त हो रही है वह उस मूल्य के बाराबर है अथवा नहीं। इसी प्राकृतिक चेतना के वशीभूत मनुष्य ने नाप एवं तौल प्रणालियों का प्रयोग प्रारम्भ किया तथा नाप एवं तौल के लिए समय-समय पर विभिन्न  मानक निर्धारित किए। जैसे- पूर्व वैदिक काल में गाय विनिमय का माध्यम मानी जाती थी। तब यह सुनिश्चित किया जाता था कि गाय दे कर प्राप्त होने वाली वस्तु का महत्व (मूल्य) दी जा रही गाय के बराबर है या नहीं। उत्तरवैदिक काल में निष्क, शतमान आदि मुद्राओं के माध्यम से मूल्य का निर्धारण किया जाने लगा। सैन्धव काल में लम्बाई नापने के लिए स्केलनुमा नाप-चिन्हित पट्टी का उपयोग किया जाता था। 
मुद्रा एवं बाजार व्यवस्था के विकास के साथ-साथ विनिमय के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ तथा वे बुराइयां भी इसमें आती गईं जो मनुष्य की संग्रहण, लालच आदि प्राकृतिक बुराइयों से जन्मीं। व्यापारी एवं दूकानदार उपभोक्ताओं को धोखा देने का प्रयास करने लगे। वे अधिक  मूल्य लेकर कम सामान देते तथा सामान की उत्तमता में भी धोखाधड़ी करते। ऐसी स्थिति में राज्य की ओर से ऐसे अधिकारी नियुक्त किए जाने लगे जो नाप-तौल प्रणाली पर नियंत्रण रखें तथा उपभोक्ताओं को ठगे जाने से बचने में उनकी सहायता करें। धोखा देने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देने का विधान राज्य की ओर से किया जाने लगा।                     
‘‘नारद स्मृति’’ में नारद ने उन नियमों का स्पष्ट उल्लेख किया है जिसमें किराए से गााड़ी लेने वालों के साथ धोखा करने वालों के लिए दण्ड का विधान है। व्यापारियों को अपना व्यापारिक माल एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिए गाड़ी, नाव अथवा जहाज किराए पर लेना पड़ता था। ऐसे समय एक उपभोक्ता के रूप में उनके ठगे जाने के भी अनेक अवसर रहते थे। इस संबंध में नारद ने लिखा है कि  यदि व्यापारी आधा रास्ता चले जाने पर गाड़ी को छोड़ दे तो भी उसे पूरा किराया देना होगा किन्तु यदि गाड़ीवाला पूरे रास्ते माल न ले जाए तो उसे बिलकुल किराया नहीं मिलेगा। यदि गाड़ीवाले की असावधानी से माल की क्षति हो तो उसे क्षतिपूर्ति करनी होती थी। देश के अन्दर जिन वस्तुओं का व्यापार होता था उनमें अधिकतर दैनिक उपभोग की वस्तुएं होती थीं। जैसे-दूध, दही, घी, शहद, लाख, गरम मसाले, मदिरा, मंास, पकाया हुआ चावल, तिल, फूल, फल, मणियां, दास और दासियां, शस्त्र, नमक, रोटी, पौधे, कपड़े, रेशम, चमड़ा, हड्डियां, कंबल, पशु, मिट्टी के बर्तन, छाछ, शाक, अदरक तथा जड़ी-बूटी। नारद के अनुसार इन वस्तुओं की तौल तथा बिक्री ईमानदारी से की जानी चाहिए तथा ऐसा न करने वाले को दण्डित किया जाना चाहिए।
उपरोक्त सभी वस्तुएं गंाव के बाजारों में भी मिलती थीं किन्तु कुछ ऐसी वस्तुएं थीं जो व्यापारी दूर-दूर से ला कर शहरों में बेचते थे। ये व्यापारी कालीमिर्च, चंदन और मूंगा दक्षिण भारत से, कस्तूरी, केशर तथा चमर की पूंछ हिमालय क्षेत्र से, हाथी कलिंग, अंग और आसाम से तथा घोड़े उत्तरी-पश्चिमी भारत से लाते थे। ये व्यापारी सोना, तंाबा, लोहा और अभ्रक दक्षिण बिहार से और संभवतः सोना मैसूर से लाते थे। नमक समुद्रतट से और नमक की चट्टानों वाले स्थानों से लाया जाता था। संभवतः जहंा अनाज की कमी होती थी वहंा व्यापारी कुछ खाद्यान्न भी। इन वस्तुओं के मूल्य निर्धारण पर राज्य दृष्टि रखता था ताकि व्यापारी उपभोक्ता से अतिरिक्त धन न वसूल सकें।
मौर्यकाल में व्यापारियों को व्यापार करने के लिए ‘‘पण्य अनुमति’’ (लाइसंेस) देने तथा राजकीय व्यापारियों की गतिविधियों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राज्य स्तर पर एक अधिकारी नियुक्त किया जाता था जिसे ‘’पणाध्यक्ष’’ कहते थे। पणाध्यक्ष प्रत्येक मंडियों में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करता था जो संस्थाध्यक्ष कहलाते थे। संस्थाध्यक्षों के निरीक्षण के अंतर्गत निजी व्यापारी हाटकेषुओं (बाजारों) में अपना व्यवसाय संचालित करते थे। संस्थाध्यक्ष बाजार में वस्तुओं की आपूर्ति, वस्तुओं की मंाग एवं मूल्य की स्थिति पर दृष्टि रखते थे तथा समय-समय पर पणाध्यक्ष को इनकी स्थिति से अवगत कराते रहते थे। 
कौटिल्य ने बाजार तथा व्यापारियों के हितों को ध्यान में रखते हुए मूल्य को नियंत्रित करने के लिए बाजार में वस्तुओं की कृत्रिम कमी उत्पन्न करने को भी आवश्यक ठहराया है किन्तु वहीं उसने इस बात पर बल दिया है कि प्रजा का आर्थिक हित सर्वोपरि है। व्यक्तिगत एवं अतिशय लाभ के लिए प्रजा का आर्थिक शोषण करना दण्डिनीय अपराध है। जो व्यापारी अधिक लाभ के लालच में निर्धारित मूल्य अथवा वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य उपभोक्ता से लेते हों उन्हें अर्थ दण्ड, कारावास अथवा अपराध की प्रकृति के अनुसार दोनों में से कोई एक या दोनों दण्ड एक साथ दिए जाने का विधान था।
नारद और बृहस्पति ने बेचने वाले और खरीददार दोनों के हितों की रक्षा के लिए अनेक नियम दिए हैं। नारद ने लिखा है कि यदि खरीददार वस्तु खरीदने के बाद यह समझे कि उसने उस वस्तु का मूल्य अधिक दे दिया है तो उस वस्तु को बिना उसका प्रयोग किए लौटा सकता था और अपना मूल्य वापस ले सकता है। परन्तु यदि वह खरीद के दिन से अगले दिन वस्तु लौटाए तो उसे खरीद के मूल्य से 1/30 भाग कम मूल्य मिलता था। तीसरे दिन लौटाने पर 1/15 भाग मिलता था। तीसरे दिन के बाद दूकानदार उस वस्तु को नहीं लौटाता था। इन नियमों से स्पष्ट है कि बाजार का नियंत्रण सुव्यवस्थित नियमों के द्वारा होता था।  कोई व्यापारी मनमानी नहीं कर सकता था। बृहस्पति ने लिखा है कि यदि वस्तु के दोष को बिना बताए हुए कोई व्यापारी किसी वस्तु को बेचता था तो खरीददार को उसे उस मूल्य का दूना लौटाना पड़ता था और उसे सरकार को मूल्य के बराबर जुर्माना देना पड़ता था। 
‘‘मृच्छकटिकम’’ में उल्लेख है कि उपभोक्ता संरक्षण के नियमों के होते हुए भी बाजार में बेईमान व्यापारी विद्यमान थे। ऐसी कहावत थी कि ऐसा व्यापारी जो धोखेबाज न हो, ऐसा सुनार जो चोर न हो और ऐसी वेश्या जो लालची न हो दुर्लभ है। इसलिए बृहस्पति ने मिलावट करने वालों को दण्ड देने के लिए अनेक नियम दिए हैं। नारद के अनुसार यदि कोई व्यापारी समय पर बेची वस्तु न दे और उस वस्तु का मूल्य कम हो जाए तो व्यापारी को जितना मूल्य कम हुआ है उतना धन और यह वस्तु खरीददार को देनी होगी। 
नारद स्मृति में स्पष्ट किया गया है कि व्यापारी लाभ उठाने के लिए सब प्रकार की वस्तुएं खरीदते और बेचते थे परन्तु यह लाभ वस्तु की खरीद के मूल्य के अनुपात में होना चाहिए। मौर्यकाल में वस्तुओं के मूल्य सरकार द्वारा निश्चित किए जाते थे किन्तु गुप्तकाल के संबंध में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं मिलता है जिससे यह प्रमाणित हो कि इस काल में वस्तुओं के मूल्य सरकार द्वारा निश्चित किए जाते थे। यदि कोई व्यक्ति ऐसी वस्तु को बेच दे जिसका वह स्वामी न हो तो ऐसी बिक्री मान्य नहीं थी। वस्तुओं का मूल्य मंाग पर निर्भर होता था। जब खरीददार कम होते थे और व्यापारियों को बहुत हानि उठानी पड़ती थी किन्तु जब खरीददार अधिक होते और वस्तुएं कम उपलब्ध होतीं तो व्यापारी साधारण मूल्य से दो गुने और तिगुने मूल्य पर अपनी वस्तुएं बेचते थे। किन्तु इस स्थिति में उपभोक्ता पर अनावश्यक बोझ न पड़े इसका ध्यान रखना बाजार नियंत्रक अधिकारियों का कत्र्तव्य होता था।
गुप्तकाल में माल ढोनेवालों और व्यापारियों के लिए जो नियम थे वे गुप्तोत्तर काल में भी लागू किए जाते थे। उदाहरण के लिए मेघातिथि ने लिखा है कि यदि कोई व्यापारी माल लेजाने के लिए किसी से गाड़ी किराए पर ले और गाड़ीवाला माल ले कर नहीं जाए तो उसे किराया नहीं देना चाहिए। इसी प्रकार व्यवसायी ने वस्तु का जो मूल्य लिया हो यदि वह उसी मूल्य के योग्य की वस्तु उपभोक्ता को न दे तो उपभोक्ता को चाहिए कि वह तुरन्त राजकीय सेवकों के पास इसकी शिकायत करे जिससे धोखा देने वाला व्यवसायी दण्डित किया जा सके।  
 आशय यह है कि प्राचीन भारत में बाजार, व्यवसाय एवं व्यापार के विकास पर जितना ध्यान दिया जाता था उतना ही प्रजा अर्थात उपभोक्ताओं के अधिकारों की भी रक्षा की जाती थी। उपभोक्ता संरक्षण का विचार आधुनिक नहीं अपितु प्राचीनकाल से चला आ रहा है। 
(विशेष: इस विषय पर विस्तार से विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’’ में पढ़ा जा सकता है।)               
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