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Tuesday, November 20, 2012

Fort Of MOTH



Fort of Moth, Uttar Pradesh
The fort of Moth is a precious piece of Indian Heritage. This medieval period's fort saw the first freedom fight of 1857 and it is silent witness of first Freedom fight. 
Moth is a town and a nagar panchayat in Jhansi district in the Indian state of Uttar Pradesh.
Moth is located at 25.72°N 78.95°E. It has an average elevation of 191 metres (626 feet). the cricket team of moth is also famous. Nearest village-reo bakuan, bharosa, dhwar ki matan, dasna, reo is also one of them. There is a famous devi mandir, and high mountain, kasai babba mandior is also famous. There is an old neem trees, that is mounted by mr. gya prasad khare, there is also an old hanuman mandir and hardol mandir.

Fort of Moth, Uttar Pradesh

The place was earlier called "Math" and during British rule in India, the name changed to "Moth" due to their British accent. The place has an old fort which is almost in to ruins now.
Moth village near fort of Moth

Moth has had a long list of freedom fighters, who might not be very famous but contributed to India's freedom movement at length. One of them is Kanhaiya lal Agrawal(Chirmole), who died in year 1994. Other than those there was one Baba Rusia ( he could talk in reverse sentences) and one Bhalla baba who contributed to India's freedom struggle, Sidhgopal Tiwari(of Bharosa village) was most educationist. Their role is very important and at local level persons like them were skeleton of India's freedom struggle.

Tuesday, August 14, 2012

वेदों में गायन कला का महत्व


- डॉ. शरद सिंह
             
गायन मानव की संवेदनाओं को जागृत करता है.आज दुनिया भर में संगीत के महत्व पर वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं . पाश्चात्य  जगत के वैज्ञानिक पृथ्वी के समस्त चेतन तत्वों पर पड़ने वाले संगीत के प्रभाव का अनुसंधान करने में जुटे हुए हैं . जबकि हमारे वैदिक ऋषियों ने संगीत के समस्त प्रभावों को पहले ही जान लिया था तथा गायन को जीवन की प्रत्येक गतिविधि से जोड़ने का आह्वान किया था .
               ऋग्वेद, अथवर्वेद, यजुवेर्द और सामवेद में सामवेद में गायन के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है. वैदिक ऋषि जानते थे कि मानव में आन्तरिक गुणों के विकास के लिए गायन को अपनाया जाना जiरी है . गायन में वह शक्ति है जो आनन्द, प्रेम, श्रद्धा और सद्भावना को जगाती है . गायन के विशेष उतार-च ढ़ाव प्रत्येक जीव से संवाद कर सकते हैं . यदि बांसुरी की धुन पर गाय  आदि पशुओं को नियंत्रित, निदेर्शित किया जा सकता है, डमरू की ध्वनि पर भालू नत्तर्न कर सकता है तथा पक्षी वर्ग स्वयं गाय नयुक्त स्वर में संवाद कर सकता है तो ये संगीत का व्यापक प्रभाव ही है जो प्रत्येक जीव के मन को आंदोलित एवं आल्हादित करता है. वेदों में कहा गया है कि सम्पूणर् सृष्टि लयबद्ध और संगीतमय  है तथा अलौकिक संगीत का प्रवाह सम्पूर्ण सृष्टि में में प्रवाहित होता रहता है. इस अलौकिक संगीत को ही वेदों में अनहद नाद कहा गया है.    
                                                                    


सामवेद में सामगान का वणर्न मिलता है. सामगान को आत्मा का मधुर आलाप कहा गया है.
     तस्य  हैतस्य  साम्नोय : स्वं वेद -
     भवति हास्य  सवं तस्य  वै स्वर एव स्वं  ।। साम. 1.3.25
               संगीत सात स्वर और सात श्रुतियों का समूह है. ये स्वर और श्रुतियां कानों के माध्यम से मन-मतिष्क तक पहुंचती हैं और सुप्त संवेदनाओं को जगा कर स्वर के अनुरूप भावना का संचार करती हैं . संगीत के सात स्वर हैं- स,रे,ग,म,प,ध,नि . इन सभी सात स्वरों की अपनी-अपनी अलग ध्वनि शक्तियां हैं. जैसे, "स' की ध्वनिशक्तियां हैं-तहव्रा, कुमुदवती,मन्दा और छन्दोवती. "रे 'की ध्वनिशक्तियां हैं-दयावती, रंजनी और रतिका . "ग' की रौद्री और क्रोधा. "म' की वज्रिका,प्रसारिणी प्रीति और माजर्नी. "प' की क्षिति, रक्ता, सांदीपिनी एवं अलापिनी. "ध' की मदन्ती, रोहिणी और रम्या. इसी प्रकार "नि' की ध्वनिशक्तियां हैं उग्रा और क्षोभिणी. 

            सामवेद में स्पष्ट कहा गया है कि यदि स्वरों की शक्तियों के अनुरूप गायन किया जाए तो सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.यदि संगीत की स्वर-शक्तियों का उचित अभ्यास हो तो गायक चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है. गायन ईश्वर तक पहुंच ने का मागर् प्रशस्त करता है. याज्ञवल्यि  स्मृति में गाय न को देव दशर्न का माध्य म बताया गया है-
              अतो गीतप्रपंचस्य  श्रुत्यादेस्तत्वदशर्नात् ।
              अपिस्यात्सच्चिदानन्द रूपिण: परमात्मन:
              प्राप्ति: प्रभावृत्तस्य  मणिलाभो यथाभवेत् ।।  या.स्मृ.718
                
 सामवेद में प्रमुख चार प्रकार के गान का उल्लेख है - ग्रामगेय  गान, अर·य गान, ऊह गान तथा रहस्य  गान.  ग्रामगेय  गान प्रकृति की उपासना का गान है, अरण्य  गान आंतरिक शांति की अनुभूति का गान है, ऊह गान लौकिक आनन्द की अनुभूति का गान है तथा रहस्य  गान लौकिक एवं अलौकिक रहस्यों से तादात्म्य  स्थापित करने का गान है. ये गान जीव में ऊर्जा का संचार करते हैं तथा जीवनचर्या को सदगति प्रदान करते हैं . इसीलिए वैदिक ऋषियों ने मंत्रों एवं श्लोकों को संगीत की स्वरलहरियों में निबद्ध करके उच्चारित करने की परंपरा शुरू की जिससे मंत्रों तथा श्लोकों का समुचित प्रभाव उत्पन्न हो सके.

 सामगान के गायकों को आरोह-अवरोह सहित संगीत के नियमों का पालन करते हुए गाने का अभ्यास कराया जाता था.ये गाय क गुरुकुल में रहते थे और गायनकला में दक्षता प्राप्त करते थे. किसी भी मंत्र को आठ प्रकार से गाया जा सकता था. ये आठ प्रकार अथवा शैलियां थीं- विकार, विश्लेषण, विकषर्ण, अभ्यास, विराम, स्तोभ, आगम और लोप. आलाप के लिए स्तोभ का प्रयोग किया जाता था. जैसे इस मंत्र का स्तोभ शैली में गान किया जाता था-
     अहमस्मि प्रथामजा ऋतस्य  पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य  नाम ।
     यो मा ददाति स इदेवमावदह मन्नमन्न मदन्त मद्मि ।। साम.594
               
वैदिककाल में जब पूरी तन्मयता एवं शात्रीय  संगीतात्मकता के साथ मंत्रों  का उच्चारण किया जाता था तो उसका प्रभाव समस्त चेतन जगत् पर पड़ता था. शाÍीय  विधि से मंत्रों का गायन पवित्रकार्य  माना जाता था. अथवर्वेद में कहा गया हैकि गायन से देव प्रसन्न होते हैं तथा आयु, प्राण, प्रजा, पशुधन, कीर्ति आदि की वृद्धि होती है.
       स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयंतां पावमानी द्विजानाम ।
       आयु: प्राणं प्रजा पशुं कीतिर् द्रविणं ब्रह्मवच र्स्म ।
       मद्दमं दत्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम् ।।  अथवर्. 19.77.1
                                  
            सामवेद का उपवेद गान्धवर्वेद है. गान्धवर्वेद में भारतीय  शात्रीय  राग-रागिनियों, वाद्यों एवं  नृत्यकला का वर्णन है. वेदों में  गायन को उल्लास की पूणर्ता, उत्सव का चरम तथा आह्वान का माध्यम माना गया है. इसीलिए यह माना जाता था कि संगीतमय  मंत्रोच्चार से देवता प्रसन्न होते हैं. यदि देवता का आह्वान करना है तो उसे संगीतात्मक स्वर में आमंत्रित करना चाहिए.
                  बृहदिन्द्राय  गाय त मदतोवृत्रहन्तमम् ।
                  येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधो देवं देवाय  जागृवि ।। 
                                                                          (य जु. 2.3) 
                   इसी प्रकार याज्ञवल्यि  स्मृति में  मोक्ष प्राप्ति के लिए वाद्यवृंद के सुमधुर संगीत के साथ गायन को महत्वपूर्ण बताया गया है.
              वीणावादनतत्वज्ञः  श्रुतिजाति विशारदः ।
              तालज्ञश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग स गच्छति ।। या.स्मृ.718  

 
                वैदिक ऋषि जानते थे कि संगीत की स्वर लहरियों में रोगों को दूर करने की भी क्षमता होती है .   वे जानते थे कि रोग आंतरिक शक्तियों  के क्षीण होने से उत्पन्न होते हैं अतः गायन द्वारा क्षीण आंतरिक शक्तियों को उर्जा प्रदान करके रोगी के रोग को दूर किया जा सकता है. जैसे, नैराश्य  से उत्पन्न रोग को आनन्दपूर्ण गायन से दूर किया जा सकता है. 
                                     
                  
वस्तुतः विश्व के अनेक विद्वान एवं वैज्ञानिक चेतन जगत् पर गायनकला के प्रभावों के बारे में जो खोज कर रहे हैं उन प्रभावों के बारे में वेदों में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है. यदि आवश्यकता है तो वेदों के अध्ययन करने और उसमें निहित ज्ञान को लोकोपयोगी रुप में सामने लाने की.


Monday, June 25, 2012

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में दिए गए व्याख्यान का वीडियो....... Video of Dr (Miss) Sharad Singh's lecture at Gurukul Kangri University, Haridwar (Uttarakhand), India


गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में दिए गए व्याख्यान का वीडियो.......
Video of  Dr (Miss) Sharad Singh's lecture at Gurukul Kangri University, Haridwar (Uttarakhand), India 
इस वीडियो को देखने के लिए कृपया क्लिक करें -
PART-1 ....



PART-2 ....



PART-3 ....



PART-4 ....  


 
 

Sunday, June 03, 2012

Dr (Miss) Sharad Singh’s Interview and Documentary courtesy DIGI NEWS TV Channel



On the occasion of Madhya Pradeh's great medieval warrior Bundel Kesari Maharaj Chhatrasal's 363rd birth anniversary (24th May 2012), H'ble Governor of Madhya Pradesh Shri Ram Naresh Yadav honored Dr.(Sushri) Sharad Singh with prestigious "Jauhari Samman" for her book "Patton Me Quid Auraten". After the Award Ceremony an interview with documentary on Dr Sharad Singh presented by the DIGI News TV Channel on dated 28.05.2012.
'Patton Men Quaid Auraten' (women captive in leaves) book is focus on the life of Bidi Worker women of Bundelkhand region of Madhya Pradesh State of India.

डॉ. शरद सिह ‘‘जौहरी सम्मान’’ से सम्मानित......

Dr Sharad Singh Honored by H'ble Governor of Madhya Pradesh Shri Ram Naresh Yadav
महाराजा छत्रसाल जयंती, दिनांक 24.05.2012 के अवसर पर अखिल भारतीय बुन्देलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद् भोपाल (म.प्र.) द्वारा राजभवन में आयोजित गरिमामय बुन्देलत्रयी सम्मान समारोह में मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम श्री रामनरेश यादव द्वारा सुपरिचित कथाकार एवं उपन्यासकार लेखिका डॉ. (सुश्री) शरद सिंह को उनकी पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ के लिए ‘जौहरी सम्मान’ से सम्मानित किया गया। शरद सिंह की यह पुस्तक बुन्देलखण्ड के संदर्भ में जि़ला सागर (म.प्र.) की बीड़ी महिला श्रमिकों पर केन्द्रित है।
Dr Sharad Singh Honored by H'ble Governor of Madhya Pradesh Shri Ram Naresh Yadav

Dr Sharad Singh Honored by H'ble Governor of Madhya Pradesh Shri Ram Naresh Yadav

Dr Sharad Singh Honored by H'ble Governor of Madhya Pradesh Shri Ram Naresh Yadav

Monday, May 21, 2012

खजुराहो में सुर-सुन्दरियों एवं नर्तकियों की वेशभूषा



- डॉ. शरद सिंह

व्यक्तित्व को आकर्षित बनाने के लिये वेश-भूषा का महत्व सदैव रहा है. इससे जहां एक ओर तत्कालीन संस्कृति का बोध होता है, वहीं दूसरी और व्यक्ति की रुचि तथा जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण पर प्रकाश पड़ता है। गुप्तकाल में प्रचलित वेशभूषा की अगली कड़ी खजुराहो की प्रतिमा-शिल्प में दिखाई देती है। शारीरिक सौष्ठव के सौन्दर्य को उन्मुक्त भाव से प्रदर्शित करने के साथ ही वेश-भूषा के अंकन को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है। अर्थात् खजुराहो के शिल्पकारों ने मूर्तिकला के सौन्दर्य में वेश-भूषा को एक महत्वपूर्ण तत्व माना है।
   सुर-सुन्दरियों को साड़ी पहने हुये अंकित किया गया है, जो कमर से एड़ी तक है जिसमें सामने की और चुन्नटें है. जिनका एक सिरा सामने की और लटकता रहता था तथा दूसरा कांछ के समान पीछे खोंस लिया जाता था. जिससे यह चुस्त और सुविधाजनक रहती थी. दूसरा ढंग सादा था जिसमें साड़ी को लुंगी के समान बांध लिया जाता था. साड़ी का निचला सिरा एडि़यों से कुछ ऊपर तथा ऊपरी सिरा कमर के चारों और लिपटा रहता था. पार्श्व नाथ तथा विश्वनाथ मंदिर में उत्कीर्ण एक सुन्दरी तथा अप्सरा को इसी प्रकार की साड़ी पहने दिखाया गया है.
     नर्तकियों की साड़ी अपेक्षाकृत छोटी और पाजामे के समान चुस्त रहती थी। इस प्रकार की साड़ी की चौड़ाई कम होती थी जिससे घुटनों तक का भाग ही ढंका रहता था। लक्ष्मण मंदिर में नृत्यरत् एक अप्सरा को इसी प्रकार की धोती पहने दिखाया गया है. नर्तकियों एड़ियों से ऊपर चुस्त पाजामा जैसा वस्त्र भी पहनती थीं। 
     सुर सुन्दरियों एवम् अप्सराओं की मूर्तियों में वक्ष स्थल प्रायः अनावृत्त प्रदर्शित किया गया है किन्तु कुछ मूर्तियों में चोली या कुच बंध का अंकन है। कंदरिया महादेव मंदिर में कामुक मुद्रा में प्रदर्शित एक सुन्दरी को पट्टिका के रूप में चोली धारण किये है जिसे पीठ पर गांठ बांध कर पहना गया है। लक्ष्मण मंदिर में एक अप्सरा को चोली पहनते हुये दिखाया गया है, जिसमें वह दायें हाथ से अपने स्तन को थामे हुये है। उसका बांया हाथ सिर से होता हुआ दायें कंधे की चोली को व्यवस्थित कर रही है। नृत्यांगनाओं की वेशभूषा दुपट्टा या चुनरी विहीन है। लक्ष्मण मंदिर में कंदुक क्रीड़ा करती एक सुन्दरी को अवश्य दुपट्टा युक्त अंकित किया गया है।
   खजुराहो के मंदिर जहां एक ओर धर्म और आध्यात्म से जोड़ते हैं, वहीं ये तत्कालीन नर्तकियों की वेशभूषा का बोध भी कराते हैं.

Thursday, May 10, 2012

रहली का सूर्य मंदिर




रहली की सूर्य प्रतिमा





- डॉ. शरद सिंह


























































































रहली का सूर्य मंदिर




































इसी सूर्य प्रतिमा से संबंधित एक समाचार दैनिक भास्कर 
समाचारपत्र में प्रकाशित -

Monday, April 30, 2012

GANGA - The river of life (A film by Dr Sharad Singh))

इस बार मुलाक़ात एक ऐतिहासिक नदी से जो हमारे जीवन, मन, आस्था, विश्वास और इतिहास का अभिन्न अंग है।



इसे देखने के लिए कृपया क्लिक करें -


Wednesday, March 28, 2012

खजुराहो की मूर्तिकला में स्त्री-शिक्षा

- डॉ. शरद सिंह


    खजुराहो के चितेरों ने जहां नृत्य तथा वादन को उकेरा, वहीं लेखन तथा पठन को भी स्थान दिया है . खजुराहो की मूर्तियों में अत्यंत कलात्मक ढंग से लेखन एवं पठन क्रिया को ढाला गया है। इनसे पता चलता है कि चंदेल काल में स्त्री-शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था. कम से कम मध्यम और उच्च वर्ग की स्त्रियां शिक्षित होती थीं.  
विश्वनाथ मंदिर में एक नारी को कागजों के पुलन्दे सहित दिखाया गया है. वह सामने खड़े पुरुष को कुछ समझा रही है.  इसी मंदिर के अन्य दृश्य में एक नारी पुस्तक रख कर गुरु से पढ़ती हुई दिखाई गई है. समस्त ललित कलाओं की शिक्षा गुरू से लिए जाने की परम्परा कला के उद्भव से ही चली आ रही है.                                               
    लेखन से संबंधित अनेक प्रतिमाएं खजुराहो में विद्यमान हैं. किसी में पत्र लिखती हुई नारी दिखाई गई है तो किसी में स्वाभाविक उत्सुकता का भाव लिए हुए पत्र पढ़ती हुई नारी अंकित है. एक से अधिक कागजों को रखे हुये प्रसन्न चित्त नारी की प्रतिमा भी है. जो या तो पत्र पढ़ रही है अथवा किसी नृत्य-नाट्य की पटकथा को पढ़ कर प्रसन्न हो रही है.जबकि कंदरिया महादेव मंदिर में पत्रा को देख-पढ़ कर मधुरता से मुस्कराती हुई नारी उत्खचित है. पत्र पढ़कर चिन्तन में डूबी हुई नारी , उदासी से ग्रस्त , आंसू पोंछती हुई , आंखें बंद किए अथवा सप्रयास पत्र देखती हुई नारी का अत्यंत भावपूर्ण तथा कलात्मक अंकन है. एक नारी बायां हाथ अपने वक्ष पर रखी और दायें हाथ में पत्र रखी हुई अंकित है. मानों वह पत्र पढ़ने के लिए अपना हाथ अपने वक्ष के मध्य रखी हुई हो. एक अन्य नारी दायें हाथ में कलम तथा बायें हाथ में पुस्तक थामी हुई दर्शाई गई है. मूर्तियों में कला की प्रचुरता को ध्यान में रखते हुए यह माना जा सकता है कि किसी कला-पुस्तक का अध्ययन-मनन कर रही है. 
अपने बायें हाथ में पत्र तथा दायें हाथ में कलम पकड़कर पत्र लिखती हुई नारी प्रतिमा का एक से अधिक मंदिरों में सुन्दर अंकन है.  इस मुद्रा में वह सोचती हुई दर्शाई गई है कि पत्र में क्या लिखना है ? या फिर वह कविता की कोई पंक्ति लिखने जा रही हो. इसी विचारपूर्ण मुद्रा में एक अन्य स्त्री को पत्रा के विषय पर आंख मूंद कर चिन्तन करते हुए दिखाया गया है.
    दूलादेव मंदिर में एक नारी को दायें हाथ में लेखन के लिए कागजों का पुलन्दा थामें हुए दिखाया गया है. वह बायें हाथ में कलम पकड़कर उसे अपने होठों के मध्य दबा कर विचार करती हुई अंकित है. यह मुद्रा किसी नृत्य मुद्रा के समान आकर्षक है. इस प्रकार मूर्तिकला में भावमुद्राओं का कलात्मक प्रदर्शन अद्वितीय है.
        खजुराहो मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई मिथुन मूर्तियों के लिए विख्यात है किन्तु और भी बहुत कुछ है मंदिरों की दीवारों पर, इसे मूर्ति-लिपि कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इन मूर्तियों के जरिए चंदेलों ने अपने समय को पूरी समग्रता के साथ दर्ज़ कर के भविष्य के लिए एक धरोहर के रूप में रख छोड़ा है । इस मूर्ति-लिपि को पढ़ने के लिए आवश्यकता है तो मात्र उस दृष्टि की जो खजुराहो को लेकर काम-संवेगों के पूर्वाग्रह से मुक्त हो। क्योंकि इस मूर्ति-लिपि में शिक्षा संबंधी ज्ञान भी मौजूद है। स्त्री-शिक्षा को प्रदर्शित करती ये प्रतिमाएं तत्कालीन स्त्रियों की बौद्धिक क्षमता को भी रेखांकित करती हैं.