चर्चा प्लस
विश्व के प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग का एक अहम हिस्सा था एरण
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
एरण वह स्थान है जो प्रशासनिक लापरवाहियों के चलते कभी धुंधलके में गुम हो गया, तो कभी सहसा उभर कर सामने आया। इसी तरह उतार-चढ़ाव को जीते हुए एरण ने न जाने कितनी सदियां देखी हैं। बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि एरण कभी व्यवसायिक महत्व का केन्द्र था। जो आज उजड़ा चमन दिखाई देता है, वह कभी गहमागहमी भरा नगर था। वह नगर, जिससे हो कर वैश्विक व्यापारी आजा-जाया करते थे क्योंकि एरण वैश्विक व्यापारिक मार्ग का एक अहम हिस्सा था। सिल्क रोड का एक हिस्सा।
भले ही हम सब कुछ जानने का दावा कर लें किन्तु सच तो ये है कि न हम अपना भविष्य जानते हैं, न वर्तमान और अतीत भी पूरी तरह से नहीं जानते। अतीत की कथाओं के कुछ टुकड़े इतिहास के रूप में हमारे कानों से हो कर गुज़रते हैं लेकिन वे हमारे मानस में देर तक ठहरते नहीं हैं। दरअसल हम उन्हें ठहरने देते ही नहीं हैं। जिन्हें इतिहास विषय से प्रेम नहीं है उनके लिए इतिहास पढ़ कर भूल जाने वाला विषय है। हर व्यक्ति वर्तमान में जीना चाहता है और भविष्य के सपने संजोना चाहता है। अतीत को ले कर उसका सरोकार निज-पूर्वजों तक सिमटा रहता है। यही कारण है कि इस देश में अतीत का संास्कृतिक वैभव और समृद्धि होते हुए भी हम उसे सहेज नहीं पाए हैं। जबकि इतिहास ही हमारे वर्तमान की नींव है। अनेक ऐतिहासिक स्थल लगभग भुला दिए गए और वे रख-रखाव के अभाव में गुमनामी के अंधेरे में खो गए। एरण के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। फिर भी जैसे झाड़ियों के झुरमुट के हवाओं से हिलने पर क्षितिज पर चमकता तारा कभी अचानक दिखता है और कभी अचानक छिप जाता है, ठीक वैसे ही एरण का अस्तित्व भी बीच-बीच मे अपनी दस्तक देता रहा है।
एरण की प्राचीनता
600 ई.पू. के लगभग सागर जिले का सम्पूण भू-भाग चेदि जनपद में सम्मिलित था। बौद्धकाल में विदिशा व्यापारिक मार्गों का केन्द्र बिन्दु था । एरण से होता हुआ एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग उज्जैनी से विदिशा तक जाता था । इस मार्ग में वर्तमान सागर जिले का भू-भाग स्थित था । महाभारत काल में भीम ने हस्तिनापुर से प्रस्थान कर दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था। महाभारत के दूसरे पर्व के उन्तीसवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि पांडुपुत्र भीम ने भी हस्तिनापुर की दिशा से दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था । इसी प्रकार दूसरे पर्व के इकतीसवें अध्याय में वर्णित है कि पांडुपुत्र सहदेव ने माहिष्मती के आगे त्रिपुरी और उसके दक्षिणवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी । दशार्ण राज हिरण्य वर्मा की पुत्री हिरण्यमयी का विवाह द्रुपद के कथित पुत्र शिखण्डी से हुआ था। कालिदास के मेघदूत में जिस रामटेक -अमरकंटक अर्थात विदिशा-उज्जैन मार्ग का उल्लेख किया गया है उस पर भी सागर का यह भू-भाग स्थित था । इसके अतिरिक्त महाभाष्य में भी इस तथ्य की चर्चा है कि भरहुत, कोशाम्बी मार्ग सागर से हो कर गुजरता था ।
इतिहासकार अलबरूनी ने भी बुन्देलखण्ड की तत्कालीन स्थितियों का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि इस क्षेत्र से होता हुआ एक मार्ग खजुराहो से कन्नौज तक जाता था । प्राचीन राजपथ पर स्थित होने के कारण सागर क्षेत्र का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व प्राचीनकाल से ही रहा ।
बौद्धकाल में सागर चेदि जनपद के अंतगर्त अवंति राज्य के आधीन रहा । चण्डप्रद्योत के शासनकाल में भी सागर अवंति के अंतर्गत था । ई.पू.413 से 395 ई.पू. के मध्य सागर का क्षेत्र मगध साम्राज्य के अंतगर्त आ गया । 345 ई.पू. नंदवंश की स्थापना के बाद चैथी शती ई.पू. में सागर क्षेत्र दशार्णा जनपद के अंतर्गत था । मौर्य काल में दो स्वतंत्र शासकों राजा धर्मपाल और राजा इन्द्रगुप्त ने एरण के पर शासन किया । एरण से धर्मपाल के सिक्के तथा इन्द्रगुप्त की प्रशासकीय मुद्रा प्राप्त हुई है ।
तीसरी शताबदी के उत्तरार्द्ध में नागवंशीय राजाओं ने शक-क्षत्रपों के स्थान पर अपनी सत्ता स्थापित की । एरण से नागराजा गणपति नाग और रविनाग की मुद्राएं मिली हैं । यहीं से दूसरी-तीसरी शताबदी की एक नागपुरुष प्रतिमा भी प्राप्त हुई है । लगभग 34 ई. में सागर क्षेत्र गुप्त राजाओं के आधीन चला गया । समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ अभिलेख तथा एरण अभिलेख से ज्ञात होता है कि एरण सहित सागर गुप्त साम्राज्य के आधीन था । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एरण के निकट शक राज का वध किया था । तत्पश्चात, उसने अपने अग्रज रामगुप्त की पत्नी ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया था । रामगुप्त की मुद्राएं एरण तथा विदिशा से प्राप्त होती हैं ।
ऐरण की गुप्तयुगीन विष्णु प्रतिमा में गोलाकार प्रभा मण्डल, शैल के विकसित स्वरुप का प्रतीक है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के एक शिलालेख में एरण को श्एरकिणश् कहा गया है। इस अभिलेख को कनिंघम ने खोजा था। यह वर्तमान में कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित है। यह भग्नावस्था में हैं। फिर भी जितना बचा है, उससे समुद्रगुप्त के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें समुद्रगुप्त की वीरता, सम्पत्ति-भण्डार, पुत्र-पौत्रों सहित यात्राओं पर उसकी वीरोचित धाक का विशद वर्णन है। यहाँ गुप्त सम्राट बुद्धगुप्त का भी अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है, कि पूर्वी मालवा भी उसके साम्राज्य में शामिल था। इसमें कहा गया है कि बुद्धगुप्त की अधीनता में यमुना और नर्मदा नदी के बीच के प्रदेश में श्महाराज सुरश्मिचन्द्रश् शासन कर रहा था। एरण प्रदेश में उसकी अधीनता में मातृविष्णु शासन कर रहा था। यह लेख एक स्तम्भ पर खुदा हुआ है, जिसे ध्वजस्तम्भ कहते हैं। इसका निर्माण महाराज मातृविष्णु तथा उसके छोटे भाई धन्यगुप्त ने करवाया था। यह आज भी अपने स्थान पर अक्षुण्ण है। यह स्तम्भ 43 फुट ऊँचा और 13 फुट वर्गाकार आधार पर खड़ा किया गया है। इसके ऊपर 5 फुट ऊँची गरुड़ की मूर्ति है, जिसके पीछे चक्र का अंकन है।
समुद्रगुप्त के ऐरण अभिलेख में लिखा हुआ है ‘‘स्वभोग नगर ऐरिकरण प्रदेश...,’’ यानि स्वभोग के लिए समुद्रगुप्त ऐरिकिण जाता रहता था। बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है। इसी समय पन्ना नागौद क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन गये थे। जिनकी राजधानी गढ़पहरा थी।
एरण से बुधगुप्त का अभिलेख भी मिला है । लगभग 5वीं शती ई. में एरण पर हूण राजा तोरमान का अधिकार स्थापित हुआ । सन 510 ई. के एरण के गोपराज सतीस्तम्भ लेख में युद्ध में राजा गोपराज के वीरगति पाने के बाद उसकी रानी गोपाबाई के सती होने का उल्लेख है । गोपराज गुप्त शासक भानुगुप्त का सामंत था । सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण गुप्तकाल में मिलता है। 510 ई.पू. के एक लेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश भानुगुप्त का सामन्त गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ मारा गया और उसकी पत्नी उसके शव के साथ सती हो गई थी। यह इस क्षेत्र में सती प्रथा का प्रथम अभिलेख माना जाता है।
एरण में गुप्तकालीन नृसिंह मन्दिर, वराह मन्दिर तथा विष्णु मन्दिर पाये गये हैं। यद्यपि ये सब अब खण्डहर हो चुके हैं। एरण की ऐतिहासिकता पर कई शोध कार्य हो चुके हैं जिनमें डाॅ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के इतिहासविद् प्रो. नागेश दुबे और डाॅ. मोहनलाल चढ़ार का कार्य विशेष उल्लेखनीय है। यद्यपि आज से लगभग पांच-छः दशक पहले मुल्कराज आनंद ने अंग्रेजी पत्रिका ‘‘मार्ग’’ में एरण का उल्लेख किया था। 1946 में, उपन्यासकार और सामाजिक कार्यकर्ता मुल्क राज आनंद ने 14 कलाकारों, कला इतिहासकारों और वास्तुकारों के एक समूह के साथ मिलकर स्वतंत्रता की दहलीज पर खड़े भारत में ‘‘मार्ग’’ की स्थापना की। ‘‘मार्ग’’ का पूरा नाम था ‘‘मार्डन आर्किटेक्चरल रिसर्च ग्रुप’’ अर्थात आधुनिक वास्तुकला अनुसंधान समूह। इसी समूह के अंतर्गत 1946 में ही ‘‘मार्ग’’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया गया था। इस पत्रिका में किसी भी ऐतिहासिक स्थल का उल्लेख होने पर उसे वैश्विक पटल पर पुनः पहचान मिलती थी। एरण के बारे में ‘‘मार्ग’’ में चर्चा के बावजूद एरण का उस तरह उद्धार नहीं हो सका जैसाकि अन्य ऐतिहासिक स्थलों का हुआ।
रेशम मार्ग या सिल्क रोड
एरण जिस प्रसिद्ध वैश्विक व्यापारिक मार्ग पर स्थित था, वह कहलाता था सिल्क रोड। वस्तुतः दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक सिल्क रोड व्यापारिक मार्गों का एक ऐसा संजाल था जो एशिया को भूमध्य सागर और यूरोप से जोड़ता था। सिल्क रोड का नाम उस रेशम के कारण रखा गया था जिसका व्यापार इस मार्ग पर होता था। उस समय मध्य एशिया से ले कर योरोप और भूमध्य सागर के देशों तक रेशम की बहुत मांग थी। चीन में बनने वाला रेशम सिल्क रोड से हो कर दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में बिकने जाता था। यह उस समय का एक कीमती उत्पाद था। सिल्क रोड रोमन साम्राज्य और चीन के बीच और बाद में मध्ययुगीन यूरोपीय राज्यों और चीन के बीच व्यापार का एक प्रमुख माध्यम था। सिल्क रोड का वाणिज्य, संस्कृति और इतिहास पर स्थायी प्रभाव पड़ा।
रेशम मार्ग प्राचीनकाल और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह था जिसके माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे। यह चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिस से निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी। रेशम मार्ग का जमीनी हिस्सा 6,500 किमी लम्बा था इसके माध्यम मध्य एशिया, यूरोप, भारत और ईरान में चीन के हान राजवंश काल में पहुंचना शुरू हुआ था। सिल्क रोड का चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के आर्थिक विकास ही नहीं वरन सांस्कृतिक विकास को भी प्रभावित किया। इस मार्ग से परस्पर ज्ञान का प्रसार हुआ एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का परस्पर प्रभाव भी पड़ा। इस मार्ग से सिर्फ चीनी रेशम ही नहीं बल्कि चाय, चीनी मिटटी के बर्तन, भारतीय मसाले, हाथीदांत, रेशमी तथा सूती कपड़े, काली मिर्च और कीमती पत्थर आदि का व्यापार किया जाता था। इसी के साथ रोम से सोना, चांदी, शीशे की वस्तुएँ, शराब, कालीन और गहने एशिया में आते थे।
लापरवाहियों का दुष्परिणाम
ऐसे वैश्विक व्यापारिक मार्ग का महत्वपूर्ण केन्द्र एरण देश की स्वतंत्रता के पूर्व तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगातार लापरवाहियों का शिकार रहा। जिससे वहां से ऐतिहासिक महत्व के अनेक अवशेष या तो नष्ट हो गए अथवा चोरों की भेंट चढ़ गए। स्थानीय निवासियों में भी इतिहास के प्रति जागरूकता की कमी के कारण वे भी एरण को पर्याप्त संरक्षण नहीं दे सके। वर्तमान प्रशासन एरण को ले कर जागरूकता का परिचय दिखा रहा है जिससे आशा की जा सकती है कि इस ऐतिहासिक धरोहर को एक लेाकप्रिय पर्यटन स्थल बनने का अवसर मिलेगा जिससे इसके अवशेष संरक्षित हो सकेंगे और यह अपने अस्तित्व को भविष्य में भी आंशिक ही सकी किन्तु भौतिक रूप से जी सकेगा।
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