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Wednesday, June 15, 2011

मिथुन मूर्तियों का रहस्य

- डॉ.शरद सिंह

      खजुराहो, वहां स्थित मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई मिथुन मूर्तियों के लिए विख्यात है। यह प्रश्न बार-बार उठता रहा है कि मंदिर भित्तियों पर ऐसी मूर्तियां क्यों उकेरी गईं ? पूजा-अर्चना स्थल पर ऐसी मूर्तियों का क्या औचित्य है ? मंदिर अथवा कोई भी उपासना स्थल वह स्थान होता है जहां पहुंच कर मनुष्य लौकिक से अलौकिक की ओर आकर्षित होता है, तो फिर काम-क्रीड़ा रूपी लौकिक क्रियाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन क्यो ?
       इन सारे प्रश्नों का उत्तर आज भी पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं हो सका है। खजुराहो की मिथुन मूर्तियों को ले कर विभिन्न विचार एवं मत प्रचलित हैं।
कैलाश मंदिर, एलोरा
       
       खजुराहो की भांति उड़ीसा तथा मध्य भारत के कुछ अन्य स्थानों पर भी मिथुन मूर्तियों का चित्रण है। कोणार्क के अतिरिक्त कर्नाटक के भत्कल मंदिर में, तमिलनाडु के कामाक्षी अम्बा मंदिर में, महाराष्ट्र एलोरा के कैलाश मंदिर में, आंध्र प्रदेश  आलमपुर के ब्रह्मा मंदिर में मिथुन मूर्तियां मौजूद हैं।
            
कोणार्क मंदिर प्रतिमाएं
      कोणार्क के मंदिर में मिथुन मूर्त्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इन सभी मंदिरों और मूत्तियों का निर्माण लगभग उसी युग में हुआ जब खजुराहो के मंदिर एवं मूर्तियां निर्मित हुयीं। तुलनात्मक दृष्टि से खजुराहो का मूर्ति शिल्प इन सभी से श्रेष्ठ है। इसकी श्रेष्ठता को स्थापित करने वाला तत्व है इसकी सौन्दर्यात्मकता। उड़ीसा के मंदिरों में रथ और अश्व के अंकन को छोड़कर शेष मूर्तियों में खजुराहो की मूर्तियों की अपेक्षा स्थूलता है। इन मंदिरों की नारी मूर्तियों में कमनीयता, लावण्य, अलंकरण की सूक्ष्मता तथा सम्प्रेषणीयता की अपेक्षाकृत कमी है। इसी प्रकार मिथुन मूर्तियों में पौराणिक आख्यान है, कला की पुरातन एवं समसामयिक अवधारणायें हैं, तथा सौन्दर्य के विकसित आयाम से चरम विकसित आयाम हैं।
  युगल प्रतिमा, खजुराहो
     
    खजुराहो की मिथुन मूर्तियां मंदिर भित्ति पर अपने उत्खचन को एक विशिष्ट अवधारणा प्रदान करती हैं। इसका वज्र यान, तंत्रयान अथवा किसी भी वैचारिक आधार से आकलन किया जाए यह अवधारणा एक मत से उद्घाटित होती है कि समस्त सांसारिकता के निर्वहन के बाद ईश्वर की प्राप्ति संभव है। मिथुन मूर्तियां मंदिरों में उत्खचित अन्य मूर्तियां की अपेक्षा कम संख्या में हैं किन्तु अपनी कलात्मक जीवन्तता के कारण समूचे विश्व के कला-शिल्प प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करती हैं। इस प्रकार की मूर्तियां लक्ष्मण मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, जगदम्बा मंदिर तथा कंदरिया महादेव जैसे पश्चिमी समूह के मंदिरों तथा दक्षिणी समूह में दूलादेव मंदिर की बर्हिभित्तियों पर मिथुन मूर्तियां का सुन्दर एवं जीवन्त अंकन है। मिथुन मूर्तियों के मंदिर भित्तियों पर प्रदर्शन को लेकर विद्वानों में सदैव मतभेद रहा है। कुछ विद्वान उन्हें तत्कालीन सामाजिक विच्श्रृंखलता का प्रतीक मानते हैं। कुछ विद्वान इन्हें तांत्रिक विधान से जोड़ते हैं तो कुछ जीवन से मृत्यु (मोक्ष) तक की क्रमिक क्रियाओं का प्रदर्शन मानते हैं।
ब्रह्मा मंदिर, आलमपुर
         
   हिन्दू जीवन-व्यवस्थाओं में चार पुरुषार्थों-अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में काम को भी अन्य तीन पुरुषार्थों के समकक्ष महत्वपूर्ण माना गया है। खजुराहो में प्रदर्शित मिथुन मूर्तियों सृजन हेतु काम को प्रदर्शित करती हैं जिससे इनके तन्त्र मार्ग से प्रभावित होने का भ्रम होने लगता है। मिथुन मूर्तियां में प्रदर्शित कामकला की विविध पद्धतियां एवं आसन यह प्रदर्शित करते है कि मनुष्य अपने जीवन से पूर्ण तृप्ति के बाद ही आध्यात्म की ओर प्रवृत हो सकता है तथा मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
कैलाश मंदिर, एलोरा
          खजुराहो में प्रदर्शित मिथुन मूर्तियों में जिन आसनों का अंकन है उनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में मिलता है। जिनमें भुग्नक, व्यायत, अवलम्बितक, धेनुक, संघाटक, गोयूथिक तथा अघोरत आदि का अंकन शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से अनुपम है। इनकी अन्तक्रियाओं को भी शिल्पियों ने सहज भाव से प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ, धेनुक की अन्तक्रियाए हारिणबन्ध, छागल, गर्दभाक्रान्त, मार्जारललिततक आदि का प्रदर्शन विविध मूर्तियों में है।
          लक्ष्मण मंदिर की बहिर्भित्तियों पर रतिक्रिया में लिप्त युगल, मुख मैथुन, गोयूथिक (सामूहिक रतिक्रिया) तथा पशु-संभोग का उत्खचन है। इसी प्रकार दूलादेव मंदिर में मुखमैथुन, देवी जगदम्बा मंदिर में पशु आसन तथा लक्ष्मण मंदिर में गोयूथिक चित्रण प्रदर्शित किया गया है। लक्ष्मण मंदिर की बर्हिभित्ति पर अधोरत युगल के निकट एक उन्मत्त गज का अंकन है जो अपनी सूंड में एक पुरुष की टांगों को लपेटे हुए है और अपने आगे के दायें पैर को उठाकर उस पुरुष के सिर को रौंदने को तत्पर है। इसी मंदिर में उत्कीर्ण एक अन्य प्रतिभा में व्यायत युगल की बायीं ओर एक नारी तथा दायीं ओर एक पुरुष अनुचर प्रदर्शित है। ये दोनों युगल की क्रीड़ा से प्रभावित हो आत्मरति में संलग्न हैं। नीचे एक अन्य सेविका बैठी हुई है। इस प्रतिमा में मानवीय संवेग के संचरण का व्यावहारिक प्रदर्शन है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में ही गोयूथिक एवं पशु संभोग चित्रण में एक-एक अनुचरों को अपने हाथों से अपने दोनों नेत्र बंद किए हुए दिखाया गया है। संभवतः संवेग संचरण से बचने के लिए यह आचरण प्रदर्शित है क्योंकि अन्य अनुचर सहयोगी की भूमिका में हैं।
नारी प्रतिमा, खजुराहो
         
      इस प्रकार खजुराहो के मूर्ति शिल्प में जहाँ शिल्पगत आनुपातिक सौष्ठव का सुन्दर प्रदर्शन है वहीं संवेगों की विस्तृत एवं वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति है। काम-भावना का यथार्थ एवं सूक्ष्म चित्रण खजुराहो की अपनी कलात्मक विशिष्टता है। यह हिन्दू मंदिरों में प्रदर्शित है किन्तु यह भी संभावना प्रकट की जा चुकी है कि जैन मंदिर समूह के शांतिनाथ मंदिर में भी मिथुन मूर्तियों का अंकन रहा होगा। शांतिनाथ मंदिर में द्वार स्तम्भों पर उत्कीर्ण मूर्तियां (खण्डित अवस्था में) तथा मंदिर के परकोटे में स्थित अन्य मंदिरों की मिथुन मूर्तियों से प्रतीत होता है कि जैन मंदिरों में भी मिथुन मूर्तियां रही होंगी जो कि कालान्तर में वैराग्यवादी परम्परा के विरूद्ध होने के कारण खण्डित कर दी गई।


 भत्कल मंदिर, कर्नाटक
          प्रत्येक शिल्प अपने समय की स्थितियों, परम्पराओं वैचारिक एवं प्रचलित प्रतिमानों को प्रदर्शित करता है। मंदिर भित्तियों पर मिथुन मूर्तियों का सार्वजनिक प्रदर्शन काम रूपी पुरुषार्थ के प्रति तत्कालीन समाज के विस्तृत दृष्टिकोण का परिचायक भी माना जा सकता है। इसे पशु, पक्षी, मनुष्य सभी में समान रूप से स्वाभाविक क्रिया के रूप में ग्रहण करते हुए जीवन की पूर्णता (तदोपरान्त मोक्ष) आवश्यक तत्व का स्थान दिया गया है। खजुराहो शिल्प के पूर्व भी मिथुन अथवा युगल चित्रण किए गए। शुंगकालीन मृण्यमूर्तियों एवं पाषण मूर्तियों में युगल चित्रण अमरावती एवं मथुरा में है। इसके पूर्व वैदिक युग के विभिन्न ग्रंथों में शिव-शक्ति, पुरुष-प्रकृति, आत्मा-परमात्मा आदि के रूप में इसी भावना का उल्लेख हुआ है।
रात्रिदेवी, बेबीलोनिया
          
     मंदिरों की बहिर्भित्तियों पर इस प्रकार का प्रदर्शन आधुनिक समाज में आश्चर्य उत्पन्न करता है किन्तु मंदिरों और यौनाचार का पारस्परिक संबंध प्राचीनतम है। बेबीलोनिया के मिलित्ता मंदिर में प्रत्येक विवाहिता को एक बार जाकर विदेशी के साथ कुछ घंटे व्यतीत करने को होते थे। 
अफ्रोदीती मंदिर मूर्ति, ग्रीस

         इसी प्रकार ग्रीक अफ्रोदीती और रोमन वीनस के चारों ओर गणिकाओं के आवास होते थे। भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा भी चंदेलकाल से पुरातन है। कालिदास ने महाकाल की चरणधारिणी नर्त्तकियों का उल्लेख किया है।  किन्तु, छठीं शताब्दी ईसवी में नग्न नारी मूर्तियों का उत्खचन तो किया जाता था लेकिन मिथुन चित्रण का अभाव था। वज्रयान उदय यानी छठीं शताब्दी के निकट तांत्रिक परिपाटी का विकास हुआ और साधना का केन्द्र नारी को बनाया गया। शाक्त धर्म में भी भोग द्वारा तंत्र सिद्ध करने की परिपाटी रही। विन्ध्याचल में नग्न कुमारी की पूजा प्रमुख अनुष्ठान था। औघड़, सहजिया, मरमिया आदि कापालिक पंथ तंत्र ज्ञान का प्रसार करते रहे। इस प्रकार की परिपाटियों ने मंदिर में मिथुनमूर्तियाँ के उत्खचन को सहज सार्वजनिक होने में मदद की होगी।                  
         मिथुन मूर्तियों को चाहे तंत्राचार का उदाहरण माना जाए अथवा काम-पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग की अभिव्यक्ति किन्तु तथ्य निर्विवाद सिद्ध है कि इनमें शिल्प सौंदर्य का इतना सुन्दर प्रदर्शन है कि ये मूर्तियां संवेगों से युक्त एवं जीवन्त प्रतीत होती हैं। 

55 comments:

  1. हो सकता है कि ये रंगशालाएं थीं जो बाद में मंदिर का रूप धारण कर गईं!!!

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  2. बहुत अच्छी जानकारी ... मैंने ऐसा भी सुना है कि बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार की वजह से लोंग अध्यात्मिक ज्यादा हो गए थे ... इस कारण इन मूर्तियों का निर्माण किया गया ... अब यह बात कहाँ तक सच है मैं नहीं कह सकती ... क्यों कि मैं इसके इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानती ...

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  3. बढ़िया वर्णन है यह मंदिर देखने का मन है ...
    शुभकामनायें !

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  4. शरद सिंह जी!
    आपके इस आलेख का करीब पांच सप्ताह से इंतज़ार था. आपने मिथुन मूर्तियों के बारे में बहुत ही शोधपरक जानकारी दी. इसके लिए आपका आभारी हूं. यह सत्य है कि एक खास कालखंड में स्त्री-पुरुष संबंधों और अध्यात्म के साथ उसके अंतर्संबंधों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण मौजूदा वक़्त से कुछ अलग रहा होगा. मैंने आचार्य रजनीश की एक पुस्तक में पढ़ा था कि मिथुन मूर्तियों के चेहरे पर ध्यानमुद्रा और योगनिद्रा सा भाव है जो उनके आचरण को वासनापूर्ति के कृत्य की जगह की जगह आध्यात्मिक साधना में लीन होने का आभास देती है. मुझे उनका तर्क ग्राह्य लगा था.
    बहरहाल इस गहरे शोध के विषय पर आपने अच्छी जानकारी दी है. इसके लिए धन्यवाद और आभार.

    -------------देवेंद्र गौतम

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  5. शोधपरक जानकारी, बढ़िया वर्णन ,

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  6. इस ज्ञानपरक विस्तृत जानकारी के लिए आभार . पहली बार ये जाना कि कि ब्रम्हा का मंदिर पुष्कर के अलावा और भी कही है .

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  7. bahut ki gyaanverdhak aur saarthak lekh.itani achchi jaankaari dene ke liye dhanyawaad.badhaai aapko itane achche lekg ke liye.badhaai.



    please visit my blog.thanks.

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  8. चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी,
    रंगशालाओं को मंदिर में परिवर्तित किए जाने के कोई साक्ष्य नहीं मिलते हैं. रंगशालाएं अलग होती थीं और मंदिर विधानपूर्वक अलग बनाए जाते थे. मंदिर निर्माण के भी कुछ नियम थे जिनका कठोरता ते पालन किया जाता था.

    आभारी हूं विचारों से अवगत कराने के लिए।
    बहुत-बहुत धन्यवाद...

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  9. संगीता स्वरुप जी,
    हां, इस प्रकार का मत भी पाया जाता है किन्तु पूरे विश्व में विभिन्न स्थानों और भिन्न काल में इस तरह की मूर्तियों का पाया जाना इस मत को खंडित करता है.

    आपने रुचिपूर्वक मेरे लेख को पढ़ा...आभारी हूं.
    आभारी हूं लिए भी कि आपने ‘कुछ चिट्ठे ...आपकी नज़र ..’में मेरे इस लेख को शामिल कर एक बड़ा पटल दिया है.
    हार्दिक धन्यवाद...

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  10. सतीश सक्सेना जी,
    आपको लेख पसंद आया यह जानकर प्रसन्नता हुई.
    आपने अच्छा सोचा है, भ्रमण का कार्यक्रम बनाइए और निकल पड़िए.

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  11. देवेंद्र गौतम जी,
    आभारी हूं कि आपने मेरे लेख की प्रतीक्षा की, फिर इसे ध्यानपूर्वक पढ़ा और अपने अमूल्य विचारों से अवगत कराया.
    आचार्य रजनीश का तर्क मंदिरों में मिथुन मूर्तियों के मूल विचार (अवधारणा) पर आधारित है इसलिए अधिक ग्राह्य है. मंदिरों में मिथुन मूर्तियों के संबंध में मेरी भी मूल अवधारणा यही है कि इनके पीछे यही संदेश रहा कि मनुष्य तमाम सांसारिकता से मुक्त हो कर जब ईश्वर की शरण में जाता है तभी उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है.

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  12. कुश्वंश जी,
    मेरे लेख पर अपने विचार प्रकट करने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  13. आशीष जी,
    आपने मेरे लेख को पसन्द किया आभारी हूं।
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।
    यह मंदिर पुष्कर के मंदिर से छोटा है. पुष्कर तो तीर्थराज माना जाता है.

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  14. चन्द्र भूषण मिश्रा ‘गाफिल’ जी,
    मेरे लेख को पसन्द करने और बहुमूल्य टिप्पणी देने के लिए के लिए हार्दिक धन्यवाद!
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  15. प्रेरणा अर्गल जी,
    आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी के लिए आभारी हूं आपकी।
    मेरे लेख को पसन्द करने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  16. very informative...
    This is an issue which is very debatable...different people have different perceptions.

    It was a nice read.

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  17. बहुत अध्ययन के साथ आपने इन मैथुन मूर्तियों के सम्बन्ध में अपनी जानकारियों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है । वाकई इस लेख से इस सन्दर्भ में संभवतः प्रत्येक पाठक के इस ज्ञान में किसी न किसी अनुपात में वृद्धि अवश्य हुई होगी ।
    आध्यात्म के लिये काम की पूर्णता पहले आवश्यक है इसी सिद्धान्त का आचार्य़ रजनीश ने भी जीवन पर्य़ंत अनुसरण किया था और विश्व प्रसिद्ध ख्याति पाई थी ।
    सुन्दर जानकारी युक्त इस आलेख हेतु आभार सहित बधाईयां...

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  18. बहुत ही खोजपूर्ण आलेख लिखा है आपने,
    वजह चाहे जो भी हो इन के निर्माण की, बहुत खूबसूरत हैं,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  19. Jyoti ji,
    I am glad to know that you have interest in Indian History and you read thoroughly my article.
    You are right that this is an issue which is very debatable...different people have different perceptions....
    So...debate is to be continued in ago and future. Because we have not solid evidence for that.

    Lots of thank for your valuable comment.

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  20. सुशील बाकलीवाल जी,
    आपको मेरा लेख पसन्द आया यह मेरे लिए उत्साह का विषय है.
    आपकी सुधी टिप्पणी के लिए आभारी हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ....
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  21. विवेक जैन जी,
    मेरे लेख पर अपने विचार प्रकट करने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
    इसी तरह अपने विचारों से अवगत कराते रहें।

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  22. इसी तरह की मूर्तियां भोरमदेव और राजीव लोचन मंदिर राजिम मे भी है अभी तक मै यह सोचता था कि विषयो से घिरे होने बावजूद इश्वर मे ध्यान केंद्रित करने को विकसित करने के लिये ही ऐसी मूर्तियां उकेरी गयी है इस लेकिन इस लेख से मुझे एक नया आयाम समझने को मिला है आपका बहुत आभार

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  23. अरुणेश सी दवे जी,
    आपने सही कहा कि इसी तरह की मूर्तियां भोरमदेव और राजीव लोचन मंदिर राजिम मे भी है.
    मेरे लेख को पसन्द करने और बहुमूल्य टिप्पणी देने के लिए के लिए हार्दिक धन्यवाद!
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  24. वस्तुतः जिन काल-खण्डों में इस प्रकार की मूर्तियों का सृजन हुआ वे शान्ति काल थे.कोई बाहरी आक्रमण का भय नहीं था और शोषक शासकों को बिना किसी झंजट के अपना ऐश्वर्य प्रदर्शन करना था.भोग-विलास का सार्वजानिक रूप से प्रचार करके जनता का ध्यान मूलभूत समस्याओं से हटाना था.'हिंदू'कोई धर्म नहीं है-'हिंसा'से 'दूषित'लोगों हेतु 'हिंदू'शब्द का प्रचलंन हुआ है.यथार्थ में इन मूर्तियों की रचना शासकों की मानसिक हिंसा प्रवृति को ही उजागर करती है.

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  25. अच्छी जानकारी मिली इस लेख से.

    सादर

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  26. आचार्य रजनीश की पुस्तक "सम्भोग से समाधि "के बाद यह पहली प्रमाणिक विश्लेषण परक जानकारी है .भोग से ही जाता है समाधि का रास्ता ,द्वार पर छोड़ जाना होगा काम को ,तभी गर्भ गृह में प्रवेश मिलेगा जहां शिव हैं ,शिव लिंग हैं .देह बाहरी मंदिर है शरीर का इसका अतिक्रमण ही आगे का आध्यात्मिक सफ़र है आपने भी यही सन्देश दिया है सांसारिक तकाजों का निर्वहन भी ज़रूरी है योग और मोक्ष की ओर बढ़ने में .आभार इतनी विस्तृत जानकारी के लिए जिसे संयम से समेटा गया है लफ़्ज़ों में जो चित्त का शमन करतें हैं .

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  27. बहुत कुछ सिखा गया है ये लेख

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  28. behtareen aalekh....shukriya sharad ji...

    avsar mila to jaroor dekhenge...

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  29. विजय माथुर जी,
    विचारों से अवगत कराने के लिए आभार.

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  30. यशवन्त माथुर जी,
    मेरे लेख पर अपने विचार प्रकट करने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
    इसी तरह अपने विचारों से अवगत कराते रहें।

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  31. वीरूभाई जी,
    आपकी सुधी टिप्पणी के लिए आभारी हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ....इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  32. संदीप पवाँर जी,
    आपको मेरा लेख पसन्द आया यह मेरे लिए उत्साह का विषय है.
    आपकी सुधी टिप्पणी के लिए आभारी हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ....

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  33. योगेन्द्र मौदगिल जी,
    मेरे लेख को पसन्द करने और बहुमूल्य टिप्पणी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  34. आपका लेख बहुत सही और तथ्य परक है |बहुत अच्छा लगा |
    बधाई
    आशा

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  35. आशा जी,
    आपको मेरा लेख पसन्द आया यह मेरे लिए उत्साह का विषय है.
    हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ....
    इसी तरह सम्वाद बनाए रखें।

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  36. शरद जी, मिथुन मूर्तियाँ छत्तीसगढ़ के भोरमदेव, राजीव लोचन, गिरोद आदि मंदिरों की दीवारों पर हैं. कहा जाता है कि काम को बाहर रखा जाये एवं राम को भीतर. इसलिए मंदिरों की बाहरी दीवारों पर ही मिथुन मूर्तियाँ मिलती है. और माना जाता है कि इनके अंकन से संरचना पर नजर नहीं लगती, बिजली नहीं गिरती, सचाई राम जाने।

    बहुत ही बढ़िया विश्लेषण किया आपने

    आभार

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  37. बेबाक .. शोध पूर्ण लेखन...जानकारी उत्तम लगी ..आपकी इजाजत के बिना फेस बुक पर साँझा की है.. माफ़ी चाहता हूँ..
    http://www.facebook.com/home.php#!/chaddhavishal

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  38. ललित शर्मा जी,
    मेरे लेख पर अपने विचार प्रकट करने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
    इसी तरह अपने विचारों से अवगत कराते रहें।

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  39. विशाल चड्ढा (aakrosh)जी,
    हार्दिक धन्यवाद !
    आपने मुझसे अनुमति भले ही नहीं ली किन्तु सूचित किया........ यही पर्याप्त है।

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  40. बहुत जानकारियों से भरा आलेख । जैसा कि आपने लिखा है धर्म अर्थ काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ माने गये हैं तो मैथुन से परहेज शायद हमारे सनातन समाज में नही रहा होगा । सबसे बडा ुदाहरण हे शिवलिंग की पूजा जो आज तक विद्य़मान है ।

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  41. Nice article,madam please tell me why Kornak Temple is called as 'Black Pagoda'?This is a Sun temple,has it shape like Pagoda of south east asia?similar question arise for Sapt Pagoda of Mahabalipuram.

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  42. माननीया शरद सिंह जी,
    मैं इतिहास विषय का अध्ययन करने का इच्छुक हूँ | मेरा चयन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. के लिए हो गया है | मुझको आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है | मेरा ईमेल है- shiv.express@gmail.com

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  43. आशा जोगलेकर जी,
    आपको मेरा लेख पसन्द आया यह मेरे लिए उत्साह का विषय है.
    हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ....

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  44. रोहित बिष्ट जी,
    मेरे लेख पर अपने विचार प्रकट करने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।

    आपके आग्रह के अनुसार अपनी अगली पोस्ट ब्लैक-पैगोडा के बारे में रहेगी. कृपया अवश्य पढ़े और अपने विचारों से अवगत कराएं.

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  45. देवांशु (शिवम्)जी,
    बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. में चयन हेतु हार्दिक बधाई.

    आपको मेरी निम्नलिखित पुस्तकें वाराणसी में ही विश्वविद्यालय प्रकाशन, विशालाक्षी भवन, चौक में मिल जाएंगी, उन्हें पढ़िए....

    1-प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास - डॉ.शरद सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, विशालाक्षी भवन, चौक, वाराणसी (उ.प्र.)
    2-खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व - डॉ.शरद सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, विशालाक्षी भवन, चौक, वाराणसी (उ.प्र.)

    शेष जो भी जिज्ञासा हो उसे आप मेरे इसी ब्लॉग पर मुझसे पूछ सकते हैं. मेरे इसी ब्लॉग पर आपको उपयोगी जानकारी मिलती रहेगी.
    संवाद बनाए रखें.

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  46. माननीया शरद सिंह जी,
    मैं जिस क्षेत्र का निवासी हूँ वहाँ पर मानविकी विषय विशेष तौर पर इतिहास विषय हाशिये पर है| इसी वजह से यहाँ पर मेरा मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं है| ऐसी अनेक समस्याएँ हैं जिन पर मुझको मार्गदर्शन की आवश्यकता है |
    मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया है और मेरे विषय हैं - राजनीति विज्ञान, भूगोल तथा प्राचीन इतिहास| बी.एच.यू. के नतीजे एक हफ्ते पहले ही आए हैं| कला संकाय में मेरी रैंक 93वीं है तथा सामाजिक विज्ञान संकाय में मेरी रैंक 373वीं है| अब मैं इस पशोपेश में हूँ की मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन करूँ अथवा बी.एच.यू. में|इनमें से कौन सा विश्वविद्यालय मानविकी विषयों के लिए बेहतर है|

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  47. देवांशु (शिवम्)जी,
    दोनों विश्वविद्यालय मानविकी विषयों के लिए बेहतर हैं...यह तो आप पर निर्भर है कि आप कहां रह कर सुविधापूर्वक अध्ययन कर सकते हैं। आप अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार दाखिला लीजिए.
    घबराइए नहीं इतिहास तो स्वयं ही स्वाध्याय और शोध का विषय है...बस, विषय के प्रति लगाव और उत्सुकता होनी चाहिए.

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  48. आपके इस परामर्श के लिए धन्यवाद,
    अब मैं परिस्थिति तथा विवेक के आधार पर निर्णय लूँगा न की विश्वविद्यालय को बेहतरी की कसौटी पर रखकर |
    इतिहास विषय में रुचि होने के कारण मैं अपना कैरियर पुरातत्व विज्ञान में बनाना चाहता हूँ पर मुझे भूगोल विषय भी प्रिय है तथा मैं कैरियर के लिए भूगोल के विकल्प को बंद नहीं करना चाहता |
    मेरी योजना यह है की मैं बी.एच.यू. में प्राचीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति, भूगोल, कोई एक भाषा (संभवतः संस्कृत) का अध्ययन करूँ तथा प्राचीन भारतीय इतिहास में औनर्स करूँ |
    ऐसा करने से क्या इतिहास अथवा भूगोल के किसी क्षेत्र में कैरियर बनाने का विकल्प बंद हो जाएगा |

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  49. बी.एच.यू. में एक विषय कला का इतिहास है मैं इस विषय की पठन वस्तु से परिचित नहीं हूँ इसलिए कृपया इस विषय के बारे में भी बताएं |

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  50. देवांशु (शिवम्) जी,
    मेरी नई पोस्ट-‘कोणार्क का काला पगोडा और महाबलीपुरम का सप्त पगोडा’ का भी अवलोकन करें.

    प्राचीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति, भूगोल, कोई एक भाषा (संभवतः संस्कृत) के अध्ययन और प्राचीन भारतीय इतिहास में औनर्स करने का आपका विचार सही है. जब आपको प्राचीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति और भूगोल दोनों में समान रुचि है तो आपको Field Archaeology का अध्ययन करना चाहिए.
    इस संबंध में विश्वविद्यालय के सिलेवस में आपको विस्तृत जानकारी मिल जाएगी.

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  51. bahut achchha vrran hai
    p- k- pandey- satna m-p-

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  52. इतिहास का एक कालखण्ड इस तरह का है जब हम विश्व की क्रूरतम मंगोलियन जातियों से संघर्ष के कारण लगभग पुरूष विहीन अवस्था के तरफ बड गये थे। अधिकतम संतान उत्पन्न कर पुनः समाज को सबल व संघर्ष योग्य बनाने के लिये ये प्रेरणा स्त्रोत बनाये गये । यह अवसर हूणों ,शकों और कुषाणों के हमले का समय हे।

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  53. सुंदर ज्ञानवर्धक पोस्ट

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