प्राचीन भारत में उपभोक्ता संरक्षण
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
वर्तमान समय उपभोक्तावाद का समय माना जाता है। बाज़ार के विस्तार ने उपभोक्ताओं का भी विस्तार किया है और उपभोक्ताओं के लिए उतने ही जोखिम बढ़ा दिए हैं। खरीदते समय अच्छे और बुरे प्रोडक्ट में अंतर जानना कठिन हो चला है। प्रयोग करने के बाद ही सच्चाई सामने आती है और तब ग्राहक स्वयं को ठगा-सा अनुभव करता है। इसीलिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम बनाया गया है। वैसे उपभोक्ताओं का सरंक्षण कोई नूतन विचार नहीं है। प्राचीन भारत में भी उपभोक्ता संरक्षण का प्रावधान था। बल्कि आज की अपेक्षा अधिक कठोर रूप में।
जब से मनुष्य ने विनिमय के क्षेत्र में प्रवेश किया तब से उसमें प्राकृतिक रूप से यह जागरूकता आ गई कि चाहे वस्तु के रूप में हो अथवा मुद्रा के रूप में मूल्य चुकाने के बाद उसे जो वस्तु अथवा सुविधा प्राप्त हो रही है वह उस मूल्य के बाराबर है अथवा नहीं। इसी प्राकृतिक चेतना के वशीभूत मनुष्य ने नाप एवं तौल प्रणालियों का प्रयोग प्रारम्भ किया तथा नाप एवं तौल के लिए समय-समय पर विभिन्न मानक निर्धारित किए। जैसे- पूर्व वैदिक काल में गाय विनिमय का माध्यम मानी जाती थी। तब यह सुनिश्चित किया जाता था कि गाय दे कर प्राप्त होने वाली वस्तु का महत्व (मूल्य) दी जा रही गाय के बराबर है या नहीं। उत्तरवैदिक काल में निष्क, शतमान आदि मुद्राओं के माध्यम से मूल्य का निर्धारण किया जाने लगा। सैन्धव काल में लम्बाई नापने के लिए स्केलनुमा नाप-चिन्हित पट्टी का उपयोग किया जाता था।
मुद्रा एवं बाजार व्यवस्था के विकास के साथ-साथ विनिमय के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ तथा वे बुराइयां भी इसमें आती गईं जो मनुष्य की संग्रहण, लालच आदि प्राकृतिक बुराइयों से जन्मीं। व्यापारी एवं दूकानदार उपभोक्ताओं को धोखा देने का प्रयास करने लगे। वे अधिक मूल्य लेकर कम सामान देते तथा सामान की उत्तमता में भी धोखाधड़ी करते। ऐसी स्थिति में राज्य की ओर से ऐसे अधिकारी नियुक्त किए जाने लगे जो नाप-तौल प्रणाली पर नियंत्रण रखें तथा उपभोक्ताओं को ठगे जाने से बचने में उनकी सहायता करें। धोखा देने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देने का विधान राज्य की ओर से किया जाने लगा।
‘‘नारद स्मृति’’ में नारद ने उन नियमों का स्पष्ट उल्लेख किया है जिसमें किराए से गााड़ी लेने वालों के साथ धोखा करने वालों के लिए दण्ड का विधान है। व्यापारियों को अपना व्यापारिक माल एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिए गाड़ी, नाव अथवा जहाज किराए पर लेना पड़ता था। ऐसे समय एक उपभोक्ता के रूप में उनके ठगे जाने के भी अनेक अवसर रहते थे। इस संबंध में नारद ने लिखा है कि यदि व्यापारी आधा रास्ता चले जाने पर गाड़ी को छोड़ दे तो भी उसे पूरा किराया देना होगा किन्तु यदि गाड़ीवाला पूरे रास्ते माल न ले जाए तो उसे बिलकुल किराया नहीं मिलेगा। यदि गाड़ीवाले की असावधानी से माल की क्षति हो तो उसे क्षतिपूर्ति करनी होती थी। देश के अन्दर जिन वस्तुओं का व्यापार होता था उनमें अधिकतर दैनिक उपभोग की वस्तुएं होती थीं। जैसे-दूध, दही, घी, शहद, लाख, गरम मसाले, मदिरा, मंास, पकाया हुआ चावल, तिल, फूल, फल, मणियां, दास और दासियां, शस्त्र, नमक, रोटी, पौधे, कपड़े, रेशम, चमड़ा, हड्डियां, कंबल, पशु, मिट्टी के बर्तन, छाछ, शाक, अदरक तथा जड़ी-बूटी। नारद के अनुसार इन वस्तुओं की तौल तथा बिक्री ईमानदारी से की जानी चाहिए तथा ऐसा न करने वाले को दण्डित किया जाना चाहिए।
उपरोक्त सभी वस्तुएं गंाव के बाजारों में भी मिलती थीं किन्तु कुछ ऐसी वस्तुएं थीं जो व्यापारी दूर-दूर से ला कर शहरों में बेचते थे। ये व्यापारी कालीमिर्च, चंदन और मूंगा दक्षिण भारत से, कस्तूरी, केशर तथा चमर की पूंछ हिमालय क्षेत्र से, हाथी कलिंग, अंग और आसाम से तथा घोड़े उत्तरी-पश्चिमी भारत से लाते थे। ये व्यापारी सोना, तंाबा, लोहा और अभ्रक दक्षिण बिहार से और संभवतः सोना मैसूर से लाते थे। नमक समुद्रतट से और नमक की चट्टानों वाले स्थानों से लाया जाता था। संभवतः जहंा अनाज की कमी होती थी वहंा व्यापारी कुछ खाद्यान्न भी। इन वस्तुओं के मूल्य निर्धारण पर राज्य दृष्टि रखता था ताकि व्यापारी उपभोक्ता से अतिरिक्त धन न वसूल सकें।
मौर्यकाल में व्यापारियों को व्यापार करने के लिए ‘‘पण्य अनुमति’’ (लाइसंेस) देने तथा राजकीय व्यापारियों की गतिविधियों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राज्य स्तर पर एक अधिकारी नियुक्त किया जाता था जिसे ‘’पणाध्यक्ष’’ कहते थे। पणाध्यक्ष प्रत्येक मंडियों में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करता था जो संस्थाध्यक्ष कहलाते थे। संस्थाध्यक्षों के निरीक्षण के अंतर्गत निजी व्यापारी हाटकेषुओं (बाजारों) में अपना व्यवसाय संचालित करते थे। संस्थाध्यक्ष बाजार में वस्तुओं की आपूर्ति, वस्तुओं की मंाग एवं मूल्य की स्थिति पर दृष्टि रखते थे तथा समय-समय पर पणाध्यक्ष को इनकी स्थिति से अवगत कराते रहते थे।
कौटिल्य ने बाजार तथा व्यापारियों के हितों को ध्यान में रखते हुए मूल्य को नियंत्रित करने के लिए बाजार में वस्तुओं की कृत्रिम कमी उत्पन्न करने को भी आवश्यक ठहराया है किन्तु वहीं उसने इस बात पर बल दिया है कि प्रजा का आर्थिक हित सर्वोपरि है। व्यक्तिगत एवं अतिशय लाभ के लिए प्रजा का आर्थिक शोषण करना दण्डिनीय अपराध है। जो व्यापारी अधिक लाभ के लालच में निर्धारित मूल्य अथवा वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य उपभोक्ता से लेते हों उन्हें अर्थ दण्ड, कारावास अथवा अपराध की प्रकृति के अनुसार दोनों में से कोई एक या दोनों दण्ड एक साथ दिए जाने का विधान था।
नारद और बृहस्पति ने बेचने वाले और खरीददार दोनों के हितों की रक्षा के लिए अनेक नियम दिए हैं। नारद ने लिखा है कि यदि खरीददार वस्तु खरीदने के बाद यह समझे कि उसने उस वस्तु का मूल्य अधिक दे दिया है तो उस वस्तु को बिना उसका प्रयोग किए लौटा सकता था और अपना मूल्य वापस ले सकता है। परन्तु यदि वह खरीद के दिन से अगले दिन वस्तु लौटाए तो उसे खरीद के मूल्य से 1/30 भाग कम मूल्य मिलता था। तीसरे दिन लौटाने पर 1/15 भाग मिलता था। तीसरे दिन के बाद दूकानदार उस वस्तु को नहीं लौटाता था। इन नियमों से स्पष्ट है कि बाजार का नियंत्रण सुव्यवस्थित नियमों के द्वारा होता था। कोई व्यापारी मनमानी नहीं कर सकता था। बृहस्पति ने लिखा है कि यदि वस्तु के दोष को बिना बताए हुए कोई व्यापारी किसी वस्तु को बेचता था तो खरीददार को उसे उस मूल्य का दूना लौटाना पड़ता था और उसे सरकार को मूल्य के बराबर जुर्माना देना पड़ता था।
‘‘मृच्छकटिकम’’ में उल्लेख है कि उपभोक्ता संरक्षण के नियमों के होते हुए भी बाजार में बेईमान व्यापारी विद्यमान थे। ऐसी कहावत थी कि ऐसा व्यापारी जो धोखेबाज न हो, ऐसा सुनार जो चोर न हो और ऐसी वेश्या जो लालची न हो दुर्लभ है। इसलिए बृहस्पति ने मिलावट करने वालों को दण्ड देने के लिए अनेक नियम दिए हैं। नारद के अनुसार यदि कोई व्यापारी समय पर बेची वस्तु न दे और उस वस्तु का मूल्य कम हो जाए तो व्यापारी को जितना मूल्य कम हुआ है उतना धन और यह वस्तु खरीददार को देनी होगी।
नारद स्मृति में स्पष्ट किया गया है कि व्यापारी लाभ उठाने के लिए सब प्रकार की वस्तुएं खरीदते और बेचते थे परन्तु यह लाभ वस्तु की खरीद के मूल्य के अनुपात में होना चाहिए। मौर्यकाल में वस्तुओं के मूल्य सरकार द्वारा निश्चित किए जाते थे किन्तु गुप्तकाल के संबंध में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं मिलता है जिससे यह प्रमाणित हो कि इस काल में वस्तुओं के मूल्य सरकार द्वारा निश्चित किए जाते थे। यदि कोई व्यक्ति ऐसी वस्तु को बेच दे जिसका वह स्वामी न हो तो ऐसी बिक्री मान्य नहीं थी। वस्तुओं का मूल्य मंाग पर निर्भर होता था। जब खरीददार कम होते थे और व्यापारियों को बहुत हानि उठानी पड़ती थी किन्तु जब खरीददार अधिक होते और वस्तुएं कम उपलब्ध होतीं तो व्यापारी साधारण मूल्य से दो गुने और तिगुने मूल्य पर अपनी वस्तुएं बेचते थे। किन्तु इस स्थिति में उपभोक्ता पर अनावश्यक बोझ न पड़े इसका ध्यान रखना बाजार नियंत्रक अधिकारियों का कत्र्तव्य होता था।
गुप्तकाल में माल ढोनेवालों और व्यापारियों के लिए जो नियम थे वे गुप्तोत्तर काल में भी लागू किए जाते थे। उदाहरण के लिए मेघातिथि ने लिखा है कि यदि कोई व्यापारी माल लेजाने के लिए किसी से गाड़ी किराए पर ले और गाड़ीवाला माल ले कर नहीं जाए तो उसे किराया नहीं देना चाहिए। इसी प्रकार व्यवसायी ने वस्तु का जो मूल्य लिया हो यदि वह उसी मूल्य के योग्य की वस्तु उपभोक्ता को न दे तो उपभोक्ता को चाहिए कि वह तुरन्त राजकीय सेवकों के पास इसकी शिकायत करे जिससे धोखा देने वाला व्यवसायी दण्डित किया जा सके।
आशय यह है कि प्राचीन भारत में बाजार, व्यवसाय एवं व्यापार के विकास पर जितना ध्यान दिया जाता था उतना ही प्रजा अर्थात उपभोक्ताओं के अधिकारों की भी रक्षा की जाती थी। उपभोक्ता संरक्षण का विचार आधुनिक नहीं अपितु प्राचीनकाल से चला आ रहा है।
(विशेष: इस विषय पर विस्तार से विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’’ में पढ़ा जा सकता है।)
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