Tuesday, March 26, 2013
Sunday, February 10, 2013
भीम कुण्ड : जहां विष्णु तरल रूप में हैं
- डॉ.सुश्री शरद सिंह
सुरम्य प्राकृतिक
स्थलों में देवताओं का वास होता है. एक ऐसा ही सिद्ध क्षेत्रा तीर्थ स्थल है भीम
कुण्ड. विश्व प्रसिद्ध कलातीर्थ खजुराहो से लगभग 128 कि.मी. दूर स्थित भीम कुण्ड
आदिकाल से ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों
एवं साधकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है. वर्तमान समय में यह धार्मिक-पर्यटन एवं
वैज्ञानिक शोध का केन्द्र भी बनता जा रहा है. यहां स्थित जल-कुण्ड भू-वैज्ञानिकों
के लिए कौतूहल का विषय रहा है. अनेक शोधकर्ता इस जलकुण्ड में कई बार गोताखोर उतार
चुके हैं किन्तु इस जलकुण्ड की थाह आज तक कोई भी नहीं पा सका है.
पौराणिक ग्रंथों में भीम कुण्ड का नारद कुण्ड
तथा नील कुण्ड के नाम से भी उल्लेख मिलता है. भीम कुण्ड के संबंध में कई कथाएं
प्रचलित हैं. जिनमें से प्रमुख हैं- देवर्षि नारद द्वारा साम गान का गायन तथा भीम द्वारा गदा प्रहार द्वारा जल स्रोत प्रकट
करना.
देवर्षि नारद
द्वारा साम गान का गायन - पौराणिक कथा के अनुसार एक बार
देवर्षि नारद आकाश मार्ग से विचरण कर रहे थे. रास्ते में उन्हें अनेक विकलांग स्त्री-पुरुष
दिखाई पड़े. वे स्त्री-पुरुष न केवल विकलांग थे अपितु घायल भी थे तथा कराह रहे थे.
यह दृश्य देख कर देवर्षि नारद दुखी हो गए. वे उन स्त्री-पुरुषों के पास पहुंचे और
उन्होंने उनसे उनका परिचय पूछा. उन स्त्री-पुरुषों ने बताया कि वे संगीत की
राग-रागिनियां हैं. यह सुन कर देवर्षि नारद को बहुत आश्चर्य हुआ. उन्होंने
राग-रागिनियों से पूछा कि तुम लोगों की ये दशा कैसे हुई बताओ तथा तुम्हारे
दुख-कष्ट को दूर करने के लिए मैं क्या कर सकता हूं, यह
भी बताओ. देवर्षि नारद के पूछने पर राग-रागिनियों ने बताया कि पृथ्वी पर स्थित
अनाड़ी गायक-गायिकाओं द्वारा दोषपूर्ण गायन के कारण हमारे अस्तित्व को क्षति
पहुंची है. अब तो हमारा उद्धार तभी हो सकता है जब संगीत विद्या में निपुण कोई कुशल
गायक साम गान का गायन करे.
देवर्षि नारद साम
गान के ज्ञाता थे. राग-रागिनियों की बात सुन कर वे स्वयं को रोक नहीं सके और
उन्होंने साम गान का गायन प्रारम्भ कर दिया. देवर्षि नारद का स्वर तीनों लोकों में
व्याप्त होने लगा. देवता साम गान के स्वरों में मग्न होने लगे. भगवान शिव नर्तन कर
उठे तथा भगवान ब्रह्मा ताल देने लगे. साम गान के स्वरों को सुन कर तथा इस अलौकिक
दृश्य को देख कर भगवान विष्णु इतने भावविभोर हो उठे कि वे द्रवीभूत हो कर उसी स्थान
पर जा पहुंचे जहां पीडि़त राग-रागिनियां एकत्रा थीं. द्रवीभूत विष्णु का स्पर्श पा
कर राग-रागिनियां स्वस्थ हो गईं. उन्होंने भगवान विष्णु से निवेदन किया कि वे
द्रवीभूत रूप में सदा के लिए उसी स्थान में रुक जाएं जिससे अन्य पीडि़तों का भी
उद्धार हो सके. भगवान विष्णु ने राग-रागिनियों की प्रार्थना स्वीकार कर ली और
नील-जल के रूप में वहीं एक कुण्ड में ठहर गए. यही कुण्ड नारद कुण्ड, नील कुण्ड तथा भीम कुण्ड के नामों से पुकारा जाता है. इस कुण्ड का वर्षा ऋतु
के जल जलधर बादलों की भांति नीले रंग का दिखाई पड़ता है.
एक अन्य कथा के अनुसार देवर्षि नारद ने भवान
विष्णु की स्तुति में गंधर्व गायन प्रस्तुत किया जिससे विष्णु अभीभूत हो उठे. वे
भावातिरेक में एक जल कुण्ड में परिवर्तित हो गए तथा उनकी श्यामल त्वचा द्रवित हो
कर नीले जल में परिवर्तित हो गई.
भीम द्वारा गदा
प्रहार द्वारा जल स्रोत प्रकट करना - दूसरी बहुप्रचलित कथा
भीम के द्वारा अपने गदा से भूमि पर प्रहार कर जल स्रोत प्रकट करने की है. इस कथा
के अनुसार महाभारत काल में द्यूत-क्रीड़ा में कौरवों से पराजित होने के बाद पांडव
अज्ञातवास के लिए निकल पड़े. एक सघन वन से गुजरते समय द्रौपदी को बड़ी जोर की
प्यास लगी. पांचो भाइयों ने आस-पास पानी ढूंढा किन्तु वहां पानी का कोई स्रोत नहीं
था. उन्होंने द्रौपदी को धीरज बंधाया और कुछ दूर और चलने को कहा. द्रौपदी भी अपनी
प्यास पर नियंत्राण रखने का प्रयास करती हुई आगे बढ़ी. किन्तु कुछ दूर जाने पर
द्रौपदी का प्यास के मारे बुरा हाल हो गया. वह मूर्छित हो कर गिर पड़ी. पांडवों ने
पुनः पानी तलाशा. वहां आस-पास पानी की एक बूंद भी नहीं थी. उन्हें ऐसा लगा कि यदि
द्रौपदी को अविलम्ब पानी नहीं मिला तो उसके प्राण-पखेरू उड़ जाएंगे. इस विकट
स्थिति में स्वयं को हरसंभव प्रयत्न से शांत रखते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने नकुल
को स्मरण कराया कि उसके पास यह क्षमता है कि वह
पाताल की गहराई में स्थित जल का भी पता लगा सकता है.
युधिष्ठिर का कथन
स्वीकार करते हुए नकुल ने भूमि को स्पर्श करते हुए ध्यान लगाया. दूसरे ही पल उसे
पता चल गया कि किस स्थान पर जल स्रोत है. अब समस्या थी भूमि को भेद कर जल प्राप्त
करने की. भीम द्रौपदी की दशा देख कर पहले ही क्रोध से व्याकुल हो रहे थे, जब उन्होंने देखा कि जल स्रोत का पता चलने पर भी जल के दर्शन नहीं हो पा रहे
हैं तो उहोंने क्रोधित हो कर अपनी गदा उठाई और नियत स्थान पर गदा से प्रहार किया.
भीम की गदा के प्रहार से भूमि की कई पर्तों में छेद हो गया और जल दिखाई देने लगा.
किन्तु भूमि की सतह से जल स्रोत लगभग 30फिट नीचे था. न तो वहां तक मूर्छित द्रौपदी
को ले जाया जा सकता था और न ही जल को द्रौपदी तक लाया जा सकता था. ऐसी स्थिति में
युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि अब तुम्हें अपनी धनुर्विद्या के कौशल से जल तक
पहुंच मार्ग बनाना होगा. यह सुन कर अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाया और अपने बाणों से
जल स्रोत तक सीढि़यां बना दीं. धनुष की सीढि़यों से द्रौपदी को जल स्रोत तक ले
जाया गया. चूंकि भीम की गदा के प्रहार से भूमि में जो कुण्ड बना,
वही कुण्ड भीम कुण्ड कहलाया. इस स्थान पर द्रौपदी सहित
पाण्डवों ने कुछ समय व्यतीत किया था.
निष्क्रिय
ज्वालामुखी - कुछ लोग भीम कुण्ड को निष्क्रिय ज्वालामुखी
मानते हैं क्यों कि यह पर्वतीय स्थल में गुफा के भीतर कठोर चट्टानों के बीच जल
कुण्ड के रूप में स्थित है तथा कुण्ड की गहराई अथाह है. अब तक कई भू-वैज्ञानिकों
ने गोताखोरों द्वारा इसकी गहराई का पता लगाने का प्रयास किया है किन्तु उन्हें
कुण्ड का तल नहीं मिला. कुण्ड के तल के बदले लगभग अस्सी फिट की गहराई में तेज
जलधाराएं प्रवाहमान मिलीं जो संभवतः इसे समुद्र से जोड़ती हैं. भीम कुण्ड की गहराई
भू वैज्ञानिकों के लिए आज रहस्य बनी हुई है. यह भी उल्लेखनीय है कि इस जल कुण्ड का
जल-स्तर कभी कम नहीं होता है.
यह जल-कुण्ड वस्तुतः
एक गुफा में स्थित है. जल-कुण्ड के ठीक ऊपर वर्तुलाकार बड़ा-सा छेद (कटाव) है
जिसके सूर्य की किरणें कुण्ड की जलराशि पर पड़ती है. सूर्य की किरणों में इस
जलराशि में मोरपंख के रंगों की आभा झलकती है. यह कहा जाता है कि इस कुण्ड में
डूबने वाले का मृत शरीर कभी ऊपर नहीं आता है. इस कुण्ड में डूबने वाला व्यक्ति सदा
के लिए अदृश्य हो जाता है.
भीम कुण्ड के प्रवेश
द्वार तक जाने वाली सीढि़यों के ऊपरी सिरे पर चतुर्भुज विष्णु तथा लक्ष्मी का
विशाल मंदिर बना हुआ है. विष्णु अपने तीन हाथों में गदा, चक्र एवं शंख धारण किए हुए हैं तथा एक हाथ अभय मुद्रा में है. लक्ष्मी अपने
दाएं हाथ में कमल के दो अविकसित पुष्प लिए हुए हैं तथा बायां हाथ दान मुद्रा में
है. श्वेत पत्थर से निर्मित दोनों प्रतिमाओं के चेहरे पर स्मित-हास का भाव मन में
आनन्द का संचार कर देता है.
विष्णु-लक्ष्मी के मंदिर के समीप विस्तृत प्रांगण में एक प्राचीन मंदिर
स्थित है. जिसके ठीक विपरीत दिशा में एक पंक्ति में छोटे-छोटे तीन मंदिर बने हुए हैं
जिनमें क्रमशः लक्ष्मी-नृसिंह, राम-दरबार
तथा राधा-कृष्ण के मंदिर हैं.
वस्तुतः भीम कुण्ड एक
ऐसा विशिष्ट तीर्थ स्थल है जहां ईश्वर और प्रकृति एकाकार रूप में विद्यमान हैं तथा
जहां पहुंच कर प्रकृतिक विशेषताओं के रूप में ईश्वर की सत्ता पर स्वतः विश्वास
होने लगता है.
Thursday, January 10, 2013
प्राचीन भारत में बलात्कारी केलिए दण्डविधान
- डॉ.सुश्री शरद सिंह
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक मानव से यह अपेक्षा की
जाती है कि वह कोई ऐसा काम न करे कि जिससे किसी भी दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुंचे ।
इसी संकल्पना के मानक के रूप
में आचरण-शुचिता को संस्कृति के विकास का आधार माना गया है और इसी शुचिता को बनाए
रखने के लिए आचरण-संहिताएं बनाई गई
हैं । बलात्कार एवं व्यभिचार अथवा स्त्री-संग्रहण को सदैव अमानवीय कृत्य
माना गया है तथा इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है । भारतीय संस्कृति में स्मृतिकारों ने यौन संबंधों में बलप्रयोग अथवा इच्छा विरुद्ध संबंध को अनैतिक माना है ।
![]() |
याज्ञवल्यक्य |
‘मितराक्षरा’ में याज्ञवल्यक्य
ने स्पष्ट
किया है कि
किसी पुरुष का किसी स्त्री के साथ मात्र कामसुख के लिए बलात्
समागम करना व्यभिचार है । यह दण्डनीय है । ‘मनुस्मृति’ में
बलात्कार को अपराध ठहराते हुए लिखा गया है कि पर-स्त्री संयोग की लालसा से जो दूसरी स्त्री को ग्रहण करे या पकड़े वह
संग्रहण (बलात्कार) का दोषी है । ‘मनुस्मृति’ में
तो यहां तक कहा गया है कि जो पुरूष परस्त्री के साथ रमणीय एकान्त में वार्तालाप करता है तथा उसके
अस्पृश्य अंगों (जंघा, वक्ष, कपोल आदि का स्पर्श करता है तो वह बलात्कार
का दोषी होगा।
बृहस्पति ने बलात्कार के तीन प्रकार बताए हैं-बल द्वारा, छल द्वारा और अनुराग द्वारा । जब
पुरूष एकान्त स्थान में स्त्री की इच्छा के विरूद्ध जब वह उन्मत्त या प्रतत्त हो
अथवा सहाय ता के लिए चीत्कार कर रही हो, उसके साथ बलपूवर्क यौनक्रिया करता है तो यह कृत्य बलपूवर्क किया गया बलात्कार कहलाएगा। जब कोई पुरूष किसी स्त्री को झूठे बहाने बना कर, छल, कपट
से एकान्त में ले जा कर अथवा धोखे से नशीले पदार्थ का सेवन करा कर उसके साथ यौनक्रिया करता है
तो यह कृत्य छलपूवर्क किया गया बलात्कार कहलाएगा । इसी प्रकार जब कोई पुरूष मात्र कामपूर्ति की इच्छा से
किसी स्त्री के सम्मुख अपने अनुसार का छद्म प्रदर्शन करे तथा उसे विश्वास में ले
कर यौनक्रिया करे तो यह कृत्य अनुराग
द्वारा बलात्कार की श्रेणी में रखा जाएगा ।
बृहस्पति ने
अनुराग द्वारा बलात्कार की विशद व्याख्या करते हुए इसके तीन प्रकार बताए हैं -
प्रथम: कटाक्ष करना, मुस्कुराना, दूती भेजना, आभूषण एवं वस्त्रों को स्पर्श
करना ।
द्वितीय: सुगंध, मांस, मदिरा, अन्न, वस्त्र आदि उपहार में देना तथा मार्ग में साथ-साथ चलते हुए
वार्तालाप करना ।
तृतीय: एक ही शैया का प्रयोग करना, परस्पर क्रीड़ा, चुम्बन, आलिंगन आदि ।
इसी प्रकार
‘विवाद रत्नाकर’ में व्यास ने बलात्कार की तीन
श्रेणियां बताई हैं - 1. परस्त्री से निजर्न स्थान में मिलना, उसे आकर्षित करना
आदि। 2.विभिन्न प्रकार के उपहार आदि भेजना
। 3. एक ही शैया अथवा आसन का प्रयोग करना ।
![]() |
कौटिल्य |
इन उदाहरणों
से एक बात स्पष्ट
होती है कि
प्राचीन भारत के विधिशास्त्रियों ने प्रत्येक उस चेष्टा को बलात्कार की श्रेणी में
रखा जो प्राथमिक रूप में भले ही सामान्य प्रतीत हों किन्तु आगे चल कर बलात् यौनक्रिया में
परिवतिर्त हो सकती हो । वस्तुत: उन्होंने इन प्राथमिक क्रियाओं को ‘मानसिक
बलात्कार’ माना । इसीलिए कात्यायन
ने नौ प्रकार के बलात्कारों अथवा व्यभिचारों का उल्लेख किया है –
1. दूत के हाथों अनुचित अथवा कामोत्तेजक संदेश भेजना
।
2.अनुपयुक्त स्थान या काल पर परस्त्री के साथ पाया जाना।
3. परस्त्री को बलात् गले लगाना ।
4. परस्त्री के केश पकड़ना ।
5. परस्त्री का आंचल पकड़ना ।
6. परस्त्री के किसी भी अंग का स्पर्श करना ।
7. परस्त्री के साथ उसके आसन अथवा शैया पर जा बैठना।
8. मार्ग में साथ-साथ चलते हुए परस्त्री से अश्लील वार्तालाप करना ।
9. स्त्री अपहरण कर उसके साथ यौनक्रिया करना ।
बलात्कारी अथवा व्यभिचारी की पहचान के संबंध में भी
बड़े ही व्यावहारिक तथ्य प्राचीन ग्रंथों
में मिलते हैं । याज्ञवल्क्य ने बलात्कारी अथवा व्यभिचारी पुरुष की पहचान के
लिए उनके लक्षणों का वर्णन किया है जिन्हें देख कर बलात्कारी मनोदशा
वाले पुरूष को बंदी बनाया जा सके ।
ये लक्षण हैं - पुररुष द्वारा
परस्त्री के बालों को कामुकता से पकड़ना, अधोवस्त्र, चोली, आंचल आदि को छूना, अनुपयुक्त अथवा अनुचित स्थान पर रोक कर
कामुक निवेदन करना अथवा अश्लील वार्तालाप करना, परस्त्री के आसन अथवा शैया पर बैठना आदि ।
दण्ड का प्रावधान
भारत के प्राचीन विधिशास्त्रियों ने बलात्कारियों के लिए दण्ड का निधार्रण करते हुए जिस बात को ध्यान में रखे जाने
का निदेर्श दिया है वह है स्त्री का विवाहित अथवा अविवाहित होना । बलात्कार जैसे
जघन्य अपराध के लिए विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा निधार्रित दण्डों का विवरण क्रमश: इस प्रकार है -
बृहस्पति : बलात्कारी
की सम्पत्तिहरण करके उसका लिंगोच्छेद
करवा कर उसे गधे पर बिठा कर घुमाया जाए ।
कात्यायन : बलात्कारी को मृत्युदण्ड दिया जाए ।
नारदस्मृति :बलात्कारी को शारीरिक दण्ड दिया जाना
चाहिए ।
कौटिल्य : सम्पत्तिहरण करके कटाअग्नि में जलाने का दण्ड दिया जाना चाहिए ।
याज्ञवल्क्य : सम्पत्तिहरण कर प्राणदण्ड दिया जाना चाहिए ।
मनुस्मृति : एक हजार पण का अर्थदण्ड, निवार्सन, ललाट पर चिन्ह अंकित कर
समाज से बहिष्कृत करने का दण्ड दिया जाना चाहिए ।
ये दंड
विवाहित अथवा अविवाहित दोनों प्रकार वयस्क क्स्त्रयों के साथ बलात्कार की स्थिति
में निर्धारित किए गए थे । किन्तु अविवाहित कन्या विशेषरूप से अवयस्क कन्या के साथ
बलात् यौनाचार की स्थति में (अपराध की जघन्यता के
अनुसार) प्रमुख दण्ड थे-
1-लिंगोच्छेदन
2-दो
उंगलियां काट दिया जाना
3-उंगलियां काटना तथा छ: पण का दण्ड
4-दो
सौ पण अर्थदण्ड
5-हाथ काट
दिया जाना तथा दोसौ पण अर्थदण्ड
6- मृत्युदण्ड
कौटिल्य के
अनुसार कन्या के साथ बलात्कार करने में जो भी सहयोग करे, अवसर अथवा स्थान उपलब्ध कराए उसे भी अपराधी के समान दण्ड दिया जाना चाहिए । उंगली काटने अथवा मृत्युदण्ड का निधार्रण इस आधार पर होता
था कि बलात्कार किस प्रकार किया गया- लिंग
प्रवेश द्वारा अथवा उंगली
प्रक्षेप द्वारा ।
दासी तथा वेश्याओं के साथ किए जाने वाले बलात्कार के लिए अलग से दण्ड विधान था । ऐसे किसी भी प्रकरण में निम्नानुसार दण्ड
दिया जा सकता था-
1-बारह
कृष्णल का अर्थदण्ड
2-चौबीस
पण का अर्थदण्ड
3-पचास
पण का अर्थदण्ड
4-एक
सहस्त्र पण का अर्थदण्ड
5-निवार्सन
6- मृत्युदण्ड
(अस्पृश्यस्त्री के साथ बलात् यौनक्रिया
पर -विष्णुधमर्सूत्र आधारित विष्णुस्मृति के अनुसार निधार्रित दण्ड)
इस
प्रकार स्पष्ट
हो जाता है
कि बलात्कार जैसे अमानवीय और जघन्य अपराध के लिए प्राचीन दण्ड विधान में कठोर दण्ड दिए जाने के प्रावधान
थे ताकि समाज में ऐसे आपराधिक कृत्य कम से
कम घटित हों, व्यक्ति
अपराध करने से डरे तथा स्त्रियां यौन-अपराधों से सुरक्षित रहें ।
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