- डॉ. शरद सिंह
600 ई.पू.
के लगभग सागर ज़िले का सम्पूणर् भू-भाग चेदि जनपद में सम्मिलित था। बौद्धकाल में
विदिशा व्यापारिक मार्गों का केन्द्र बिन्दु था । एरण से होता हुआ एक प्रमुख
व्यापारिक मार्ग उज्जैनी से विदिशा तक जाता था । इस मागर् में सागर ज़िले का
भू-भाग स्थित था । महाभारतकाल में भीम ने हस्तिनापुर से प्रस्थान कर दशार्ण और
चेदि पर अधिकार किया था । महाभारत के दूसरे पर्व के उन्तीसवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि पांडुपुत्र भीम ने भी हस्तिनापुर
की दिशा से दशार्ण और चेदि पर अधिकार किया था । इसी प्रकार दूसरे पर्व के इकतीसवें
अध्याय में वर्णित है कि पांडुपुत्र सहदेव
ने माहिष्मती के आगे त्रिपुरी और उसके दक्षिणवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी । कालिदास के मेघदूत में जिस रामटेक -अमरकंटक अर्थात
विदिशा-उज्जैन मार्ग का उल्लेख किया गया है उस पर भी सागर स्थित था । इसके अतिरिक्त
महाभाष्य में भी इस तथ्य की चर्चा है कि भरहुत, कोशाम्बी मार्ग सागर से हो कर गुजरता था ।
इतिहासकार अलबरूनी
ने भी बुन्देलखण्ड की तत्कालीन स्थितियों का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि इस क्षेत्र से होता हुआ एक मार्ग खजुराहो से
कन्नौज तक जाता था । प्राचीन राजपथ पर स्थित
होने के कारण सागर क्षेत्र का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व प्राचीनकाल से ही रहा
।
बौद्धकाल में सागर चेदि जनपद के अंतगर्त अवंति
राज्य के आधीन रहा । चण्डप्रद्योत के
शासनकाल में भी सागर अवंति के अंतर्गत था । ई.पू.413 से 395 ई.पू. के मध्य सागर का क्षेत्र मगध साम्राज्य के अंतगर्त आ गया । 345 ई.पू. नंदवंश की स्थापना
के बाद चौथी शती ई.पू. में सागर क्षेत्र दशार्णा जनपद के अंतर्गत था । मौर्य काल में
दो स्वतंत्र शासकों राजा धर्मपाल और राजा इन्द्रगुप्त ने एरण के पर शासन किया ।
एरण से धर्मपाल के सिक्के तथा इन्द्रगुप्त की प्रशासकीय मुद्रा प्राप्त हुई है ।
तीसरी शताबदी के उत्तरार्द्ध में नागवंशीय राजाओं ने शक-क्षत्रपों के स्थान पर अपनी सत्ता
स्थापित की । एरण से नागराजा गणपति नाग और रविनाग की मुद्राएं मिली हैं । यहीं से
दूसरी-तीसरी शताबदी की एक नागपुरुष प्रतिमा भी प्राप्त हुई है । लगभग 34 ई. में
सागर क्षेत्र गुप्त राजाओं के आधीन चला गया । समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ अभिलेख
तथा एरण अभिलेख से ज्ञात होता है कि एरण सहित सागर गुप्त साम्राज्य के आधीन था । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एरण के निकट शक राज का वध किया था । तत्पश्चात, उसने अपने
अग्रज रामगुप्त की पत्नी ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया था । रामगुप्त की मुद्राएं
एरण तथा विदिशा से प्राप्त होती हैं ।
ऐरण की गुप्तयुगीन विष्णु प्रतिमा में गोलाकार प्रभा मण्डल, शैल के विकसित स्वरुप का प्रतीक है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के एक शिलालेख में एरण को 'एरकिण' कहा गया है। इस अभिलेख को कनिंघम ने खोजा था। यह वर्तमान में कोलकाता
संग्रहालय में सुरक्षित है। यह भग्नावस्था में हैं। फिर भी जितना बचा है,
उससे समुद्रगुप्त के बारे में काफ़ी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें
समुद्रगुप्त की वीरता, सम्पत्ति-भण्डार, पुत्र-पौत्रों सहित यात्राओं पर
उसकी वीरोचित धाक का विशद वर्णन है। यहाँ गुप्त सम्राट बुद्धगुप्त का भी अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है, कि पूर्वी मालवा भी उसके साम्राज्य में शामिल था। इसमें कहा गया है कि बुद्धगुप्त की अधीनता में यमुना और नर्मदा नदी के बीच के प्रदेश में 'महाराज सुरश्मिचन्द्र' शासन कर रहा था।
एरण प्रदेश में उसकी अधीनता में मातृविष्णु शासन कर रहा था। यह लेख
एक स्तम्भ पर ख़ुदा हुआ है, जिसे ध्वजास्तम्भ कहते हैं। इसका निर्माण
महाराज मातृविष्णु तथा उसके छोटे भाई धन्यगुप्त ने करवाया था। यह आज भी
अपने स्थान पर अक्षुण्ण है। यह स्तम्भ 43 फुट ऊँचा और 13 फुट वर्गाकार आधार
पर खड़ा किया गया है। इसके ऊपर 5 फुट ऊँची गरुड़ की दोरुखी मूर्ति है,
जिसके पीछे चक्र का अंकन है। एरण से एक अन्य अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो 510
ई. का है।
समुद्रगुप्त के ऐरण अभिलेख में लिखा हुआ है : ‘‘स्वभोग नगर ऐरिकरण प्रदेश...,’’ यानि स्वभोग के लिए समुद्रगुप्त ऐरिकिण जाता रहता था। बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा
करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है।
इसकी समय पन्ना नागौद
क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि
जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन
गये थे। जिनकी राजधानी गड़पैरा थी दक्षिणी पश्चिमी झांसी–ग्वालियर के अमीर वर्ग के अहीरों की सत्ता थी तो धसान क्षेत्र के परिक्षेत्र में मांदेले प्रभावशाली हो गये थे।
एरण से बुधगुप्त का अभिलेख भी मिला है । लगभग 5वीं
शती ई. में एरण पर हूण राजा तोरमान का अधिकार स्थापित हुआ । सन 510 ई. के एरण के
गोपराज सतीस्तम्भ लेख में युद्ध में राजा गोपराज के वीरगति पाने के बाद उसकी रानी
के सती होने का उल्लेख है । गोपराज गुप्त शासक भानुगुप्त का सामंत था ।
सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण गुप्तकाल
में मिलता है। 510 ई.पू. के एक लेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश
भानुगुप्त का सामन्त गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ मारा गया और
उसकी पत्नी उसके शव के साथ सती हो गई थी।
एरण में गुप्तकालीन नृसिंह मन्दिर, वराह मन्दिर तथा विष्णु मन्दिर पाये गये हैं। ये सब अब खण्डहर हो चुके हैं।